________________
(४६६) उत्तर- यहां 'अधः' शब्द से स्थान समझना, क्योंकि अधः शब्द प्रथम प्रतर के अर्थ में भी नहीं घटता, तीसरे और छठे देवलोक के किल्विषिक देवों के प्रथम प्रतर में तीन सागसेपम और तेरह सागरोपम की स्थिति घटती नहीं है, उसके विमानों की संख्या शास्त्र में नहीं आती तथा देवलोक में रहे बत्तीस लाख विमानों के अन्दर उनके विमानों की गणना सम्भव नहीं है तत्वतो केवली गम्य है, इस तरह वृद्ध महापुरुष कहते हैं।'
अभी च चण्डालप्राया, निन्द्यकर्माधिकारिणः । अस्पृश्यत्वादन्यदेवैर्धिक्कृतास्तर्जनादिभिः ॥२८६॥
ये किल्विषिक निंद्यकर्म के अधिकारी होने के कारण चंडाल समान है अस्पृश्य होने से अन्य देव इनको तर्जना आदि से धिक्कार देते हैं । (२८६)
देवलोके विमानेषु, सुधाभुक् पर्षदादिषु । कौतुकादि संगतेषु, देवानांनिकरेषु च ॥२८७॥ अष्टाह्निकाद्युत्सवेषु, जिन जन्मोत्सवादिषु । . अ प्राप्तनुवन्तः स्थानं ते, स्वं शोचन्ति विषादिनः ।।२८८॥
देवलोक़ के विमान के विषय में, जिनकी पर्षदा में कौतुक से एकत्रित हुए देव के समूह में, अष्टाह्निकादि महोत्सव में, जिन जन्म महोत्सवादि के अन्दर स्थान नहीं प्राप्त करने से उदास बने हुए वे किल्विषिक देव अपने आप की निन्दा करते हैं । (ऐसे शुभ श्रेष्ठ अवसर हमें नहीं मिलते हैं) । (२८७-२८८)
आचार्योपाध्यायगच्छ संघ प्रतीपवर्तिनः ।। येऽवर्णवादिनस्तेषामयशः कारिणोऽपि च ॥२८६॥ असद् भावोद्भावनाभिर्मिथ्यात्वाभिनिवेशकैः ।। व्युद्ग्राहंयन्तः स्वात्मानं, परं तदुभयं तथा ॥२६०॥ प्रतिपाल्यापि चारित्रपर्यायं वत्सरान् बहून । तेऽनालोच्याप्रतिक्रम्य, तत्कर्माशर्मकारणम् ॥२४१॥ त्रयाणां किल्विषिकाणां, मध्ये भवन्ति कुत्रचित् । तादृशवतपर्यायापक्षेया, स्थितिशालिनः ।।२८२॥