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________________ (४६६) .. . ईशानस्वर्वासिनीभिर्देवीभिर्विषयेच्छवः । चिन्तामात्रोपस्थिताभी, रमन्ते ब्रह्मदेव वत् ।।२७० ॥ विषय सुख भोगने की इच्छा वाले देवताओं की इच्छा मात्र से आई हुई ईशान देवलोक की देवियों के साथ में वे देव ब्रह्मलोक के समान क्रीड़ा करते हैं । (२७०) च्यवमानोत्पद्यमानसंख्या गत्यागती अपि । . अवधिज्ञान विषयः, स्यादत्र बह्म लोकवत् ॥२७१ ॥ च्यवन और उत्पत्ति की संख्या गति, अगति, अवधि ज्ञान का विषय ये सब विषय ब्रह्मलोक के समान समझ लेना । (२७१) : अत्रोत्पत्ति च्यवनयोरन्तरं परमंभवेत् । . दिनानि पञ्चचत्वारिंशत् क्षणश्च जघन्यतः ॥२७२॥ यहां उत्पत्ति और च्यवन का उत्कृष्ट अन्तरा ४५ दिन का होता है और जघन्य से एक समय का होता है । (२७२) पञ्चमे प्रतरे चात्र, स्याल्लान्तकावतंसकः । अङ्कावतंसकादीनां मध्येईशाननाकवत् ॥२७३॥ लान्तकस्तत्र देवेन्द्रः पुण्यसारो विराजते । सामानिकामरैः पञ्चाशता सेव्यः सहस्रकैः ॥२७४॥ यहां पांचवे प्रतर में अंकावतंसकादि विमानों की मध्य में ईशान देवलोक के समान लांतक वतंसक नामक का विमान है वहां लांतक नामक पुण्यशाली इन्द्र महाराजा विराजमान होता है और उसकी पांच हजार सामानिक देवताओं द्वारा सेवा होती है, । (२७३-२७४) द्वाभ्यां देव सहस्राभ्यां, सेव्योऽभ्यन्तरपर्षदि,। मध्यमायां चतुर्भिस्तैः पड्भिश्च बाह्यपर्षदि ॥२७५॥ युग्मं ।। अभ्यंतर पर्षदा के दो हजार मध्यम पर्षदा के चार हजार और बाह्य पर्षदा के छः हजार देवों से सेवा होती है । (२७५)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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