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(४६५) द्वितीय प्रतरे भागास्रयं एकादशाब्धयः । द्वाभ्यां भागाभ्यां समेतास्तृतीये द्वादशाब्धयः ।।२६४॥ चतुर्थे त्वेकभागांढयास्रयोदश पयोधयः । पञ्चमे प्रतरे पूर्णाश्चतुर्दशैव वार्द्धयः ॥२६५।। .
दूसरे प्रतर के देवताओं की उत्कृष्ट स्थिति ११- ३/५ सागरोपम की है, तीसरे प्रतर के देवताओं की उत्कृष्ट स्थिति १२- २/५ सागरोपम की है । चौथे प्रतर के देवताओं की उत्कृष्ट स्थिति १३- १/५ सागरोपम की है और पांचवे प्रतर के देवताओं की उत्कृष्ट स्थिति पूर्ण १४ सागरोपम है ।
जघन्येन तु सर्वत्र, दशैव मकराकराः । स्वस्वस्थित्यनुसारेण, देहमानमथ बुवे ॥२६६॥
जघन्य तो सर्वत्र १० सागरोपम की स्थिति समझना । अपने-अपने आयुष्य अनुसार देह प्रमाण इस तरह है । (२६६) .
एका दशोद्भवैर्भागैश्चतुर्भिरधिकाः कराः । .. पञ्चदेहमानमत्र, दशरत्नाक रम्युषाम् ॥२६७।।
. दस सागरोपम के आयुष्य वाले देवताओं का देहमान ५- २/११ हाथ होता है । (२६७) : :
त्रिभागाढयाः कराः पञ्चैकादशार्णवजीविनाम् । हस्ताः पञ्च लवौं द्वौ च, द्वादशाम्योधिजीविनाम् ।।२६८॥ सैकभागाः कराः पञ्च, त्रयोदशार्णवायुषाम् । चतुर्दशाब्धिस्थितीनां, पूर्णाः पञ्च करास्तनुः ॥२६६॥
ग्यारह सागरोपम के आयुष्य वाले देवताओं का देहमान ५- ३/११ हाथ है। बारह सागरोपम के आयुष्य वाले देवताओं का देहमान ५- २/११ हाथ है, तेरह सागरोपम के आयुष्य वाले देवताओं का देहमान ५- १/११ हाथ का है और चौदह सागरोपम के आयु वाले देवताओं का देहभान सम्पूर्ण ५ हाथ प्रमाण का होता है । (२६८-२६६)