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________________ (४६४) . पांच प्रतर के पंक्तिगत त्रिकोन विमान दो सौ है और चोरस विमान १६२ होते है । (२५७) पञ्चाशीत्याभ्यधिकानि, शतानि पञ्च पङ्क्तिगाः। सहस्राण्येकोनपञ्चाशच्चत्वारि शतानि च ॥२५८॥ युक्तानि पञ्चदशभिरिह पुष्पावकीर्णकाः । विमानानां सहस्राणि, पञ्चाशत्सर्वसंख्यया ॥२५६॥ ... पांच प्रतर के पंक्तिगत सर्व विमान पांच सौ पंचाशी (५८५) है और पुष्पा वकीर्णक विमान उनचास हजार चार सौ पन्द्रह (४६४१५) होते है और लांतक देवलोक के सर्व विमान पंचास हजार होते हैं । (२५८२५६) : ..... विहायसि निरालम्बे, प्रतिष्ठितो धनोदधिः । धनवातोऽस्मिन्निहामी, स्युर्विमाना: प्रतिष्ठिताः ॥२६०॥ आलंबन रहित आकाश में घनोदधि रहा है उसके ऊपर घनवात रहा है और इसके ऊपर ये विमान रहे है । (२६०) . . वर्णोच्चत्वादितमानं च, स्यादेवां बह्मलोकवत् । देवास्तवत्र शुक्लवर्णाः शुक्लेश्या महर्द्धिकाः ॥२६१॥ इन विमानों का वर्ण तथा ऊंचाई का प्रमाण ब्रह्मलोक के समान समझ लेना, यहां रहे महर्द्धिक देव शुक्ल वर्ण वाले और शुक्ल लेश्या वाले होते हैं । (२६१) इतः प्रभृति देवाः स्युः सर्वेऽप्यनुत्तरावधि । . शुक्लेश्या शुक्लवर्णाः कितूत्कृष्टा यथोत्तरम् ॥२६२॥ यहां से लेकर अनुत्तर विमान तक के देव शुक्ल लेश्या और शुक्ल वर्ण वाले है, परन्तु ऊपर से ऊपर उत्कृष्ट भाव वाले समझना चाहिए । (२६२) प्रथम प्रतरे तत्र, स्थिति ज्येष्ठा सुधा भुजाम् ।, पञ्चभागीकृत स्याब्धेश्चत्वारोऽशा दशाब्धयः ॥२६३॥ . लांतक देवलोक के प्रथम प्रतर के देवताओं की उत्कृष्ट स्थिति १०८५ सागरोपम की होती है । (२६३)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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