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________________ (४६२) की है ऐसे जीवात्मा श्री जिनेश्वर तथा गणधर भगवंत ये सभी तद्जन्म में मोक्षगामी होते हैं, जबकि लोकांतिक देव सात आठ जन्म के अन्दर मोक्ष में जाने वाले होते हैं । इस शास्त्र का मंतव्य सबसे अलग है । (२४४ सी) अथोर्ध्व ब्रह्मलोकस्य, समपक्षं समानदिक् । योजनानामसंख्येय कोटाकोटि व्यतिक्रमे ॥२४५॥ विभाति लान्तकः स्वर्गः पञ्चप्रतरशोभितः । ... प्रतिप्रतरमेक के नेन्द्र के ण विराजितः ॥२४६॥ .... अब लांवतक देवलोक का वर्णन करते हैं : - इस ब्रह्म देवलोक के ऊपर असंख्य कोटा कोटि योजन जाने के बाद समान दिशा समान श्रेणि में रहे प्रत्येक प्रतर में एक-एक इन्द्रक विमान से शोभायमान पांच प्रतर से युक्त लांतक नाम का स्वर्ग शोभायमान है । (२४५-२४६) प्रथम प्रतरे तत्र, बलभद्रायमिन्द्रकम् । चक्रं गदा स्वस्तिकं च, नन्द्यावर्त्तमिति क्रमात् ॥२४७॥ उसमें प्रथम प्रतर में बलभद्र, दूसरे प्रतर में चक्रं, तीसरे प्रतर में गदा चौथे प्रतर में स्वस्तिक और पांचवे प्रतर में नन्द्यावर्त नामक इन्द्रक विमान होता है। (२४७) प्रतिप्रतरमेतेभ्यः, पङ्क्तयोऽपि चतुर्दिशम् । प्राग्वदत्र विना प्राची, प्रोक्तां: पुष्पावकीर्णकाः ॥२४८॥ प्रत्येक प्रतर में इन इन्द्रक विमान के चारों दिशामें पंक्तिगत विमान है और पूर्व दिशा विना की तीन दिशा में पुष्पावकीर्णक विमान होते हैं । (२४८) एकत्रिंशदथ त्रिशंदेकोनत्रिंशदेव च । तथाऽष्टाविंशतिः सप्त विशंतिश्च यथाक्रमम् ॥२४६॥ पञ्चस्वेषु, प्रतरेषु, प्रतिपंक्ति विमानकाः । ऐकैकस्यामथो पतौ, प्रथम प्रतरे स्मृताः ॥२५०॥ . यस्रा एकादशान्ये च, द्वैधा दश दशेति च । चतुर्विशं शतं सर्वे, पङ्क्तिस्थायि विमानकाः ॥२५१॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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