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'श्री ब्रह्म लोके प्रतरे तृतीये, लौकान्तिकास्तत्र वसन्ति देवाः ।
एकावतारा: परमायुरष्टौ भवन्ति तेषामपि सागराणि ।। २४४ अ ।। इति श्रेणिक चरित्रे ।। "
श्रेणिक चरित्र में कहा है कि 'ब्रह्मलोक के तीसरे प्रतर में लोकांतिक देवों का निवास है, वे एकावतारी है और आठ सागरोपम के परम उत्कृष्टं आयुष्य वाला होते हैं। (२४४)
"अट्ठेवं सागराई परमाउं होइ सव्व देवाणं ।
गाव यारिणो खलु देवा लोगंतिया नेया ॥२४४ ब॥ इति प्रवचन सारोद्धारे।
श्री प्रवचन सारोद्धार में इस तरह कहा है कि - 'इन लोकांतिक सर्वदेवों का उत्कृष्ट आयुष्य आठ सागरोपम का होता है तथा एकावतारी होते हैं ।' (२४४ ब)
तत्वार्थ टीकायामपि - लोकान्ते भवा लौकान्तिकाः अत्र प्रस्तुतत्वाद् ब्रह्मलोक एव परिगृह्यते तदन्तनिवासिनो लोकान्तिकाः सर्व ब्रह्मलोक देवानां लौकान्तिक प्रसङ्ग इति चेन्न, लोकान्तोपश्ले षात् जरा मरणादिज्वाला कीणों वा लोककस्तदनावर्तित्वाल्लौकान्तिकाः कर्म क्षयाभ्यासी भावाच्चे त्ति ।
• तच्वार्थ सूत्र की टीका में भी कहा है कि 'लोक के अन्त में बने है इससे लोकांतिक कहलाते हैं, यहां पर प्रस्तुत में लोक से ब्रह्मलोक ग्रहण करना उसे अन्त में रहने वाले होने से लोकांतिक कहलाता है ।
इस पर प्रश्न करते हैं - तो फिर ब्रह्मलोक के सर्वदेव लोकांतिक कहे जायेंगे। इसका उत्तर देते हैं ना लोक शब्द नहीं है परन्तु लोकान्त शब्द होने से ब्रह्मलोक में सर्व देव नहीं आते हैं । अतः जरा मरणादि से युक्त जो लोक है उसके अन्दर रहने वाले और कर्म क्षय के अभ्यासी होने से लोकान्तिक कहलाते हैं ।"
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लब्धि स्तोत्रे तु -
सव्वट्ठचुआ चउकय आहार गुवसमंजिणगण हराई ।
निअमेण तब्भव सिवा सत्तट्ठभवेहिं लोगंती ॥। २४४ सी ।।
लब्धि स्तोत्र में भी कहा है कि - सवार्थ सिद्ध विमान में से च्यवन हुआ जीव चार बार जिसने आहारक लब्धि का उपयोग किया है, चार बार जिसने उपशय श्रेणी
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