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यदेतत्सर्वलोकाना, सर्वलोके भविष्यति । मुक्ति राजपथीभूतं, निःश्रेयसकरं परम् ॥२३६॥
अपने आचार अनुसार ये सारस्वत आदि सर्व लोकान्तिक देवता स्वयं संबुद्ध अनुत्तर अपनी, दीक्षा का समय जानकर सांवत्सरिक दान देने की इच्छा वाले बने श्री मान अरिहतं भगवन्त के चरण कमल में दीक्षा के एक वर्ष पहले अपने विमान से उतर कर उत्साहपूर्वक परिवार सहित सुज्ञ वे देव इस तरह से विज्ञप्ति करते हैं कि- हे जगद गुरुदेव ! हे त्रैलोक्य बन्धु ! भगवन्त ! आप विजय प्राप्त करे! आनन्द प्राप्त करे और धर्मतीर्थ प्रवृत्ति करवाओ, जिससे तीर्थ सर्वलोक में सर्व लोगों को मुक्ति साम्राज्य के मार्ग रूप और श्रेष्ठ कल्याणकर बनेगा । (२३२-२३६)
इह सारस्वतादित्यद्वये समुदितेऽपिहि । . सप्त देवाः सप्त देवशतानि स्यात्परिच्छदः ॥२३७॥
यहां सारस्वतः और आदित्य ये दोनों को सात-सात देव और अन्य सात सौसात सौ का परिवार होता है । (२३७)
एव वह्नि वरुणयोः परिवारश्चतुर्दश ।
देवास्तथाऽन्यानि देवसंहस्राणि चतुर्दर्श ॥२३८॥
इस तरह से वह्नि और वरुणदेव का १४-१४ देव और चौदह चौदह हजार देवों का परिवार कहा है । (२३८) ___ गर्दतो यतुषितयोर्द्वयोः संगतयोरपि ।
सप्तदेवाः सप्तदेव सहस्राणि परिच्छदः ।।२३६॥
गर्दतोय और तुषित देवों को सात-सात देव और सात-सात हजार देवों का परिवार होता. है । (२३६)
अव्याबाधागेयरिष्टदेवानां च सुरा नव ।। शतानि नव देवानां, परिवारः प्रकीर्तितः ॥२४०॥
अव्याबाध आग्नेय और रिष्ट देवों के नो, नौ देव और नौ सौ - नौ सौ देवों का परिवार कहा गया है । (२४०)