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(४८८)
नवाप्येते विमानाः स्युर्घनवायु प्रतिष्ठिताः । वर्णादिभिश्च पूर्वोक्त ब्रह्मलोक विमानवत् ॥२२८॥
ये नौ विमान घनवायु ऊपर रहते है और उसका वर्ण आदि ब्रह्मलोक के विमानों के समान समझ लेना चाहिए । (२२८)
संस्थानं नैकधाऽमीषाम्पाङक्तेयतया खलु । .
एभ्यो लोकान्तः सहस्त्रैर्योजनानामसंख्यकैः ।।२२६॥ . - इन विमानों की एक पंक्ति में नहीं होने से इन विमानों का संस्थान एक समान नहीं है । इन विमानों से लोक का छेडा असंख्य हजार योजन के बाद आता है । (२२६)
एतेष्वथ विमानेषु, निवसन्ति यथाक्रमम् । .... सारस्वतास्तथाऽऽदिव्या, बह्न वरुणा अंपि ॥२३०॥ गर्दतोयाश्च तुषिता, अव्याबाधस्तथाऽपरे ।
आग्रेया अथरिष्टाश्च, लौकान्तिकसुधांभुजः ॥२३१॥
इन नौ विमान के अन्दर अनुक्रम से १-सारस्वत, २-आदित्य, ३-वह्नि, ४- वरुण, ५- गर्दतोय, ६- तुषित, ७- अव्याबाध, ८- आग्नेय और ६- रिष्ट नाम के लोकांतिक देवता निवास करते हैं । (२३०-२३१)
"अत्राग्नेयाः संज्ञान्तरतो मरुतोऽप्यभिधीयन्ते ।" 'यहां आग्नेय का दूसरा नाम 'मरुत' भी कहा जाता है.।' स्वत एवावबुद्धानामनुत्तरचिदात्मनाम् । . . विज्ञाय दीक्षावसरं दित्सूनां दानमाब्दिकम् ।।२३२ ।। प्रव्रज्यासमयादक, संवत्सरेण तत्क्षणम् । श्रीमतामर्हतां पादान्तिकमेत्य तथास्थितेः ॥२३३॥ विमानंयानादुत्तीर्य, सोत्साहाः सपरिच्छदाः । सारस्वत प्रभृतय सर्वे लौकान्तिकाः सुराः ।।२३४॥ विज्ञा विज्ञपयन्त्येवं, जयनन्द जगद्गुरो । त्रैलोक्यबंधो? भगवन! धर्मतीर्थ प्रवत्तैय ॥२३५॥चतुर्भि कलापकं ।