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अभ्यन्तर दाक्षिणात्यप्रतीच्ययोरथान्तरे । विमानमुक्तं चन्द्राभं पञ्चमं परमेष्ठिभिः ।।२२२॥
दक्षिणं और पश्चिम दिशा की अभ्यंतर कृष्णराजी के बीच में चन्द्राभ नाम का पांचवा विमान श्री परमेष्ठियों ने कहा है। (२२२) ।
स्यात्प्रतीचीनयोरेवं, बाह्याभ्यन्तरयोस्तयोः । विमानमन्तरे षष्ठं सूर्याभमिति नामतः ॥२२३॥
पश्चिम दिशा की बाह्य और अभ्यंतर कृष्णराजी के बीच में सूर्याभ नाम का छठा विमान कहा है । .
पश्चिमोदीच्ययोरभ्यन्तरयोरन्तरेऽथ च ।।
विमानमुक्तं शुक्राभं, सप्तमं जिन सत्तमैः ॥२२४॥ • पश्चिम और उत्तर दिशा की अभ्यंतर कृष्णराजी बीच में शुक्राभ नाम का सातवां विमान श्री जिनेश्वरों ने कहा है । (२२४)
बाह्य भ्यन्तरयोरौत्तराहयोरन्तरेऽथ च । विमानं सु प्रतिष्ठाभमष्टमं परिकीर्तितम् ॥२२५॥
उत्तर दिशा के ब्राह्य और अभ्यंतर कृष्णराजी के बीच में सुप्रतिष्ठाभ नाम का आठवां विमान कहा है।
सर्वासां कृष्णराजीनां, मध्य भागे तु तीर्थपैः ।
विमान नवमं रिष्टाभिधानामिह वर्णितम् ॥२२६॥ . सर्व कृष्ण राजियों के मध्य विभाग के अन्दर नौवा रिष्ट नाम का विमान श्री तीर्थंकर परमात्मा ने कहा है । (२२६) . ब्रह्मलोकान्तभावित्वाल्लौकांतिकान्यमून्यथ ।
लोकान्तिकानां देवानां, संबन्धीनि ततस्तथा ॥२२७॥
ब्रह्मलोक में अन्त के विभाग में रहने वाले होने से ये विमान लोकांतिक कहलाते हैं तथा लोकांतिक देव सम्बन्धी होने के कारण से भी ये विमान लोकांतिक कहलाते हैं । (२२७)