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सकता है जबकि कोई उसे पार नहीं कर सकता है । इस तरह से इस कृष्ण राजी का महत्व बहुश्रुत ज्ञानियों ने वर्णन किया है । (२०८-२०६)
तमस्कायवदत्रापि, गृहग्रामद्यसंभवः ।
नाप्यत्र चन्द्रसूर्याद्या न तेषा किरणा अपि ॥२१०॥
तमस्काय के समान इन कृष्ण राजियों में भी घर गाय आदि नहीं होते सूर्य चन्द्र अथवा उसके किरण भी नहीं होते हैं । (२१०)
अत्राम्भोद वृष्टि विधुगर्जितादि च पूर्ववत् ।
परं तद्देवजनितं, न नागासुरकर्तृकम् ॥२११।। .. यहां मेघ, वृष्टि; विद्युत, गर्जना आदि तमस्काय के समान है परन्तु वह देवकृत होता है नागकुमार या असुर कुमार कृत नहीं होता है । (२११)
'असुर नाग कुमाराणां तंत्रगमनासंभवादिति' - भगवतीवृत्तौ ॥
श्री भगवती सूत्र की टीका में कहा है कि 'नागकुमारऔर असुर कुमारों का वहां गमन का अभाव होता हैं । इसलिए वहां देवकृत ही होता है इनका नहीं है ।
कृष्णराजी मेघराजी, मघा माघवतीति च । स्याद्वातपपरिघो वातप्रतिक्षोभस्तथैव च ।।२१२॥ स्याद्देवपरिघो देवप्रतिक्षोभोऽपि नामतः । आसां नामान्यष्ट तेषामन्यर्थोऽथविमाव्यते ॥२१३॥
इसके आठ नाम हैं १- कृष्णराजी, २-मेघराजी, ३-मघा, ४-माघवती, ५-वात परिध, ६- वातपतिक्षोभ, ७- देवपरिघ और ८- देवप्रतिक्षोभ है, इनका अर्थ इस प्रकार से होता है । (२१२-२१३)
कृष्णापुद्गलराजीति, कृष्णराजीयमुच्यते । कृष्णाद्वरेखातुल्यत्वान्मेघराजीति च स्मृता ।।२१४॥ मघाया माघवत्याश्च सवर्णैत्याख्यया तथा । वातोऽत्र वात्या तद्वद्याः तमिस्रा भीषणाऽपिच ।।२१५॥ ततोऽसौवातपरिधस्तत्प्रतिक्षोभ इत्यपि । स्याद्देव परिघो देवप्रतिक्षोमश्च पूर्ववत् ॥२१६॥