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__ पूर्व दिशा के अन्दर की कृष्ण राजी अपने छेडे से दक्षिण दिशा के बाहर की कृष्ण राजी को स्पर्श करती है । (२०३)
दक्षिणाभ्यन्तरा चैवं बाह्यां पश्चिमदिग्गताम् । एवं बाह्यामौत्तराहां, पश्चिमाभ्यन्तरा स्पृशेत् ॥२०४॥
इस तरह से दक्षिण के अन्दर की कृष्ण राजी पश्चिम की बाह्य कृष्ण राजी को स्पर्श करती है इसी तरह से पश्चिम दिशा की अभ्यंतर कृष्णरांजी उत्तर बाह्य कृष्णराजी को स्पर्श करती है । (२०४)
उदीच्याभ्यन्तरा बाह्यां, प्राची निष्ठां स्पृशत्यतः । 'अष्टापि कृष्ण राज्यः स्थुरक्षपाटक संस्थिता। ॥२०५॥
और उत्तर दिशा में रही अन्दर की कृष्ण राजी पूर्व दिशा की बाह्य कृष्ण राजी को स्पर्श करती है ये आठों कृष्णराजी अखाड़े की आकार वाली है । (२०५) :
स्यादासान विशेषोयः पेक्षास्थाने निषेदुषाम् । स चाक्षपाटकस्तद्वदासां संस्थानमीरितम् ॥२०६॥ ...
सभा स्थान में बैठने का जो आसन विशेष होता है, वह अक्षपाटक कहलाता है उसके समान इन कृष्ण राजियों की आकृति होती है । (२०६)
एता विष्कम्भतोऽष्टापि, संख्येययोजनात्मिकाः । परिपेक्षायामतश्चासंख्येय योजनात्मिकाः ।।२०७॥
ये आठों कृष्ण राजियां विष्कंभ संख्यात योजन प्रमाण है जबकि आयाम और परिक्षेप असंख्य योजन प्रमाण होती है । (२०७)
तमस्कायमान योग्यः सुरो यः प्राग् निरुपितः । सं एव च तया गत्वा, मासार्द्धन व्यतिव्रजेत् ।।२०८॥ कांचिदत्र कृष्णराजी, काञ्चिन्नैव व्यतिव्रजेत् । महत्वमासामित्येवं, वर्णयन्ति बहुश्रुताः ।।२०८॥
तमस्काय के प्रमाण के मापने के लिए जो देव की गति कही है, उस गति से जाने वाला कोई देव १५ दिन में इन कृष्ण राजियों में से कुछ राजी को पार कर