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(४८३) . अब कृष्णराजी का वर्णन कहते हैं : - जो रिष्ट नाम के प्रतर मैं यह तमस्काय रूकता है उस प्रतर के रिष्ट नामक इन्द्रक विमान के चारों तरफ पृथ्वी रुप में परिणाम होने से जीव के पुद्गल वाली दो-दो कृष्णराजी है जो कि जाति मान अंजन रत्न समान गाढ कृष्ण वर्ण वाली होती है । (१६६-१६७).
तथाहि दिशि पूर्वस्यां, द्वे दक्षिणोत्तरायते । पूर्वपश्चिमविस्तीर्णे, कृष्ण राज्यौ प्रकीर्त्तिते ॥१६८॥ स्यातामपाच्यामप्येवं ते द्वे पूर्वा परायते । दक्षिणोत्तर विस्तीर्णे, कृष्ण राज्यौ यथोदिते ।।१६६॥ प्रतीच्यामपि पूर्वावत्ते दक्षिणोत्तरायते ।
उदीच्यां च दक्षिणावत्ते द्वे पूर्वापरायते ॥२०॥ ___ वह इस तरह से - पूर्व दिशा में अन्दर दो कृष्ण राजी होती है जो कि लम्बी है और पूर्व-पश्चिम चौड़ी है, इसी तरह दक्षिण दिशा में भी दो कृष्णराजी है जोकि पूर्व-पश्चिम लम्बी है और दक्षिण-उत्तर चौड़ी है । पश्चिम दिशा में भी दो कृष्ण राजी है जो कि पूर्व दिशा के समान दक्षिण-उत्तर लम्बी है और पूर्व-पश्चिम चौड़ी है । (१६८-२००) .
प्राच्या प्रतीच्या.या बाह्या, षट्टकोणा सा भवेत्किल। दक्षिणस्यामुदीच्यां च, बाह्या या सा त्रिकोणिका ॥२०१॥
पूर्व और पश्चिम में रही जो बाह्य कृष्णराजी होती है, वह षट्कोन होती है, और दक्षिण और. उत्तर में जो बाह्य रही कृष्णराजी होती है वह त्रिकोन होती है । (२०१) .. ..
अभ्यन्तराश्चतुः कोणाः, सर्वा अप्येवमास च । द्वे षट् कोणे द्वे त्रिकोणे, चतस्रश्चतुरस्त्रिकाः ॥२०२॥
जब अभ्यन्तर चार कृष्णराजी चतुष्कोन होती है अत: यह कृष्णराजी में दो, छह कोन वाली है दो-तीन कोने वाली है और चार-चार कोने वाली है । (२०२)
पौरस्त्याभ्यन्तरा तत्र, कृष्ण राजी स्पृशत्यसौ । निजान्तेन कृष्णराजी,दाक्षिणात्यांबहिःस्थिताम् ।।२०३।।