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________________ (४८२) श्री जिनेश्वर भगवन्तो ने आगम के अन्दर इसके तेरह नाम कहे हैं वह इस तरह : - १-तमः २ तमस्काय, ३ अंधकार ४ महादिक, ५, लोकांधकार, ६ लोक त मिस्र, ७ देवांधकार, ८ देवताभिश्च, ६ देवारण्य, १० देवव्यूह, ११ परिध १२ प्रतिक्षोभ, १३ अरुणोद वारिधि इन नामों में से भी लोक में अद्वितीय रूप होने से यह खासतौर पर लोकांधकार कहलाता है । (१८६-१६१) ... . न हि प्रकाशो देवानामप्यत्र प्रथते मनाक् । ... देवान्धकारोऽयं देवतमित्रं च तदुच्यते ॥१६२॥ यहां देवों के तेज का प्रकाश की जरा फैल नहीं सकता है इससे यह देवांधकार और देवतमिश्र कहलाता है । (१६२) बलवद्देवभयतो, नश्यतां नाकि नामपि । । अरण्य वच्छरण्योऽयं, देवारण्यं तदुच्यते ।।१६३॥ बलवान देव के भय से भागते देवों को अरण्य के समान की शरणभूत होने से देवारण्य वह कहलाता है । (१६३) . दुर्भेदत्वाद्वयूह इव प्रतिक्षोभो भयावहः । गतिरूंधन परिधवत् देवव्यूहा दिरुच्यते ।१६४॥ ... दुर्भेद होने से व्यूह कहलाता है, भंयकर होने से प्रतिक्षोभ कहलाता है, गति को रोकने वाला होने से परिध कहलाता है तथा देवव्यूहादि नाम भी कहलाता है । (१६४) अरूणो दाम्भोधि जलविकारत्वातथाभिधः । एवमन्वर्थता नानामन्येषामपि भाव्यताम् ।।१६५॥ अरुणवर समुद्र के जल का विकार होने से अरुणोद भी कहलाता है इस तरह अन्य प्रत्येक नाम की सार्थकता समझ लेना चाहिए । (१६५) यत्र रिष्ट प्रस्तटेऽयं, तमस्कायश्चनिष्ठितः । तस्येन्द्रक विमानस्य, रिष्टाख्यस्य चतुर्दिशम् ॥१६६॥ जीव पुद्रगलसत्पृथ्वीपरिणाम स्वरूपिके । द्वे द्वे च कृष्णराज्यौ स्तो, जात्याञ्जनघनद्युती ।।१६७॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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