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-बार प्रदक्षिणा दे सकता है। उसी गति से ही कोई जगह के तमस्काय को छः महीने में पार कर सकता है जबकि किसी स्थान के तमस्काय को भी नहीं पार सकता है । उसमें तमस्काय के असंख्यात योजन के विस्तार को पार कर सकता है, अधिक को नहीं पा सकता है । (१७७-१८०)
प्रादुर्भवन्ति वर्षान्ति, गर्जन्ति विद्युतोऽपि च ।
द्योतन्ते बिलसद्देवासुरनागविनिर्मिताः ॥ १८१ ॥
इस तरह विशाल तमस्काय के अन्दर विलास करते देव असुर और नाग कुमार देवों से रचित बिजली सहित के मेघ प्रगट होते हैं वर्षां करते हैं गर्जन करते हैं और बिजली चमकती है । (१८१)
तथाहु :- अत्थिणं भंते! तमुक्काए उराला बलाहया संसैयति संमुच्छंति वासं वासंति वो - हंता अत्थि इत्यादि, भगवती सूत्रे । ६ - ५।
श्री भगवती सूत्र के छठे शतक के पांचवे उद्देश में कहा है कि - हे भदंत ! तमस्काय मैं उदार जलयोनिक मेघ अथवा वात योनिक मेघ वर्षा करते हैं, हां, गौतम करते हैं । इत्यादि
यद्यप्यत्र नरक्षेत्राद् बहिर्नाङ्गीकृतं श्रुते ।
धनगर्जित बृष्टयादि, तथापि स्यात्सुरोद्भवम् ॥१८२॥
यद्यपि नरक्षेत्र के बाहर मेघ गर्जना और वृष्टि आदि शास्त्र में नहीं कहा, फिर
भी यहां देवता द्वारा रचना समझना । (१८२)
यथा नराः स्वभावेन, लङ्गितुं मानुषोत्तरम् । नेशा विद्यालब्धि देवानुभावाल्लङ्घयन्त्यपि ॥ १८३॥ अत्रोक्ता विद्युतोयाश्च, भास्वरास्तेऽपि पुद्गलाः । दिव्यांनुभावजा ज्ञेया, बादराने रभावतः ।। १८४ ॥
जिस तरह से मनुष्य अपनी सहज शक्ति से मानुषोत्तर पर्वत को पार नहीं करते । परन्तु विद्यालब्धि और देव की कृपा से पार कर सकते हैं । इसी तरह से बादल में अग्नि के अभाव होने से यहां बिजली अथवा देदीप्यमान तेजस्वी पुदगल केवल दैवी प्रभाव से समझ लेना । (१८३-१८४)