SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 532
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४७६) के पिंजर समान आकृति बनती है । आदि से लेकर ऊर्ध्व यह संख्यात् योजन तक फैलता जाता है, तब उसका घेराव भी संख्याता योजन का होता है । उसके बाद असंख्य योजन विस्तार वाला और वृत्ताकार से असंख्या योजन का होता है । (१७१-१७३) यद्यप्यधस्तमस्कायः संख्येय विस्तृतिः स्वयम् । तथाप्यस्य कुक्षिगतासंख्यद्वीपपयोनिधेः ।।१७४॥ परिक्षेपस्त्वसंख्येय योजनात्मैव संभवेत् । क्षेत्रस्यासंख्यमानस्य, परिक्षेपोह्यसंख्यकः ॥१७॥ यद्यपि तमस्काय स्वयं संख्यात योजन विस्तार वाला है. फिर भी उसके अंदर असंख्य द्वीप समुद्र आ जाने के कारण उसका परिक्षेप असंख्य योजन होता है। क्योंकि असंख्य योजन प्रमाण क्षेत्र का परिक्षेप भी असंख्य योजन का हो जाता है। (१७४-१७५) अन्तर्वाह्य परिक्षेप विशेषस्त्विह नोदितः । उभयोरपि तुल्यरूपतयाऽसंख्येयतमाततः ।।१७६॥ अंतर की परिधि और बाह्य परिधिका विशेष प्रमाण नहीं कहा क्योंकि दोनों असंख्य योजन होने से असंख्यतारूप में समान है । (१७६) इत्थमस्य महीयस्तामाहुः सिद्धान्तपारगाः । महर्द्धिकः कोऽपि देवो, यो जम्बूद्वीपमन्जसा ।।१७७।। तिसृणां चप्पुटिकानां मध्य एवैकविंशतिम् । वाग़न् प्रदक्षिणीकृत्यागच्छेद्गत्याययाऽथ सः ।।१७८॥ तयैव गत्याक्कचित्कं, तमस्कायं व्यतिव्रजेत् । । मासैः षड्भिरपिक्कचित्कं तु नैव व्यतिव्रजेत् ।।१७६ ॥ तत्र संख्येय विस्तार, व्यति व्रजेन्नचापरम् । एवं महीयसि तमस्कायेऽथाद्धाः सविद्युतः ॥१८०॥ सिद्धान्त के पारगामी पुरुषों ने इस तमस्काय की विशालता का वर्णन इस तरह . : किया है कि कोई महार्द्धिक जम्बूद्वीप के तीन चपटी में जिस गति से २१ इक्कीस १७८॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy