________________
(४७८)
स्थिरार्के न्दुकरक्लिप्टैः संभूय तिमिरैरिव ।
रचितः स्वनिवासाय, भीमदुर्गो महाम्भसि ॥१६७॥
स्थिर सूर्य और चन्द्र के किरण से दुःखी हुए अंधकार से चारों ओर से एकत्रित होकर बड़े समुद्र के अन्दर अपने निवास के लिए मानो बड़ा किला न बनाया हो इस तरह अंधकार लगता है । (१६७)
योजनानां सप्तदस शतान्यथैकविंशतिम् । .. यावदूर्ध्व समभित्याकार एवायमुद्गतः ।।१६८॥ . .
यह तमस्काय सत्तरह सौ इक्कीस (१७२१) योजन ऊंचे भीतं के आकार से रहता है । (१६८) ..
ततश्च विस्तरंस्तिर्यकक्रमादसंख्य विस्मृतिः । निक्षिप्य कुक्षी चतुरः सौधर्मादीस्त्रिविष्टपान् ॥१६६॥ :
वहां से तिर्छा विस्तार वाला रहा यह तमस्कार (अंधकार) का घेसंव असंख्याता योजन का होता है । चतुर यह तमस्काय सौधर्म, आदि लोक को अपनी कुक्षि में मानो समा देता है । (१६६)
ततोऽप्यूज़ ब्रह्मलोके , तृतीय प्रस्तटावधि ऊद्गत्य निष्ठितः श्रान्त, इवाविश्रममुत्पतत् ॥१७॥
लगातार ऊंचा घुसा रहा हो इस तरह यह तमस्काय मानो थक गया न हो इस तरह ब्रह्मलोक के दूसरे प्रतर में जाकर रुकता है । (१७०) ।
अधश्चायं सभमित्याकारत्वाद्वलयाकृतिः । शरावबुघ्नं तुलयत्यूर्ध्वं कुर्कुटपन्जरम् ।।१७१॥ . आदेरारभ्योर्ध्वमयं, संख्येय योजनावधिं । संख्येयानि योजनानि, विस्तारतः प्रकीर्तितः ॥१७२॥ ततः परमसंख्ये ययोजनान्येष विस्तृतः । परिक्षेपेण सर्वत्राप्येषोऽसंख्येययोजनः ।।१७३॥
नीचे समभित्ती के आकार होने के कारण यह तमस्काय वलयाकृति है, बीच में सराव संपुट (उलटा सीधा कोडिया) के आकार का होता है और ऊपर कुकडे