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(४७७) अस्य यान विमानं च नंद्यावर्त्तमिति स्मृतम् । नन्द्या वर्ताभिधोदेवो, नियुक्तस्तद्विकुर्वणे ॥१६०॥
इस इन्द्र महाराज का बाहर जाने का मन हो तब नन्द्यावर्त नाम के विमान और उस विमान को बनाने का अधिकारी नन्द्यावर्त नाम का देव तैयार करता है । (१६०)
अथास्य ब्रह्मलोकस्य, वरिष्ठे रिष्टनामनि । तृतीय प्रतरेसन्ति, लोकान्तिकाः सुरोत्तमाः ॥१६१॥
अब इस ब्रह्मलोक के उत्तम रिष्ट नाम के तीसरे प्रतर में लोकांतिक नामक उत्तम देवता निवास करते हैं । (१६१)
तथाह्यतिक्रम्य तिर्यग्, जम्बू द्वीपादितः परम् । द्वीपाम्बुधीन संख्येयान्, द्वीपोऽरुणवराः स्थितः ।।१६२॥ स्थान द्विगुण विस्तीर्ण तया सोऽसंख्यविस्तृतः । द्विगुणे नायमरूणवरेण वेष्टितोऽब्धिना ।।१६३॥
अथ द्वीपस्यास्य बाह्य वेदिकान्त प्रदेशतः । . . अवगाहारुण वरनामधेयं पयोनिधिम् ।।१६४॥
योजनानां सहस्रान् द्वाचत्वारिशतमत्र च । जलोपरितंलादूर्ध्वमप्काय विकृतीर्महान् ॥१६५॥ तमस्कायो महाघोरान्धकाररूप उद्धतः । परितोऽब्धिभिमरून्धन, वलयाकृति नाऽऽत्मना ।।१६६॥
वह इस तरह से इस जम्बू द्वीप से लेकर तिर्छ असंख्य द्वीप समुद्र में जाने के बाद अरुणवर नाम का द्वीप आता है, क्रमशः दोगुने-दोगुने विस्तार वाले द्वीप समुद्र होने से असंख्य योजन के विस्तार वाले ये द्वीप हैं कि जो उससे भी दोगुने विस्तार धारण करते असंख्य योजनका अरुणवर समुद्र से घिरा हुआ है । अब इस द्वीप के बाह्य वेदिका के अन्तिम विभाग से लेकर अरुणवर नाम के समुद्र में बियालीस हजार योजन के बाद जल के ऊपर के तल से ऊंचे महान अप काय का विकार होता है, और वह विकार तमस्कार नाम से महाघोर अंधकार रुप में चारों ओर इस समुद्र की वलयाकृति से घिरा हुआ रहा है । (१६२-१६६)