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________________ ( ४७५) नृतिरश्चोरेवं गर्भजयो श्चयुत्वोद्भवन्त्यमी । च्यवमानोत्पद्यमानसंख्यात्वत्रापि पूर्ववत् ॥१४७॥ ये देव यहां से च्यवन कर गर्भज मनुष्य और तिर्यंच में ही उत्पन्न होते हैं मृत्यु और उत्पत्ति की संख्या यहां पूर्व के समान समझना चाहिए । (१४७) अत्रोत्पतिच्यवनयोरन्तरं परमं यदि I द्वाविंशतिर्दिनान्यर्द्धाधिकान्येवं भवेत्तदा ॥१४८॥ उत्पत्ति और च्यवन दोनों का उत्कृष्ट अन्तर रहता है तो साढ़े बाईस दिन का होता है । (१४८) वसुमत्यास्तृतीयायाः पश्यन्त्यधस्तलावधि । इहत्यानिर्जरा स्वच्छतमेनावधि चक्षुषा ॥१४६॥ यहां के देवों को स्वच्छतम अवधिज्ञानचक्षु होता है उसके द्वारा वे नीचे तीसरी नरक के अंत विभाग तक देख सकते हैं । ( १४६) अत्रापि प्रतरे षष्टे, बह्मलोकावतंसकः । अशोकाद्यवतंसानां मध्ये सौधर्मवद्भवेत् ॥ १५०॥ ". यहां पर अन्तिम प्रतर में सौधर्म देवलोक के समान अशोका वतंसक विमानों के बीच में ब्रह्मलोकावतंसक विमान है । (१५० ) तत्र च ब्रह्मलोकेन्द्रो देवराजो विराजते । • सामानिक सुरैः षष्टया, सहसैः सेवितोऽभितः ॥ १५१ ॥ वहां चारो तरफ से साठ हजार सामानिक देवताओं से सेवित, बह्मलोकेन्द्र नामक इंन्द्र विराजमान होता है । (१५१) " पञ्चपल्योपमोपेत सार्द्धाष्ट सागरायुषाम् ॥ चतुः सहस्त्रया देवानामन्तः पर्षदि सेवितः ॥१५२॥ साढ़े आठ सागरोपम + पांच पल्योपम के आयुष्य वाले चार हजार अन्तर पर्षदा के देवता इस इन्द्र महाराज की सेवा करते हैं । (१५२) षड्भिर्देवसहस्त्रैश्च, मध्यपर्षदि सेवितः । चतुः पल्योपमोपेत सार्द्धाष्टाम्भोधिजीविभिः ॥१५३॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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