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इन देवताओं को अपने-अपने आयुष्य के सागरोपम की संख्ययानुसार उतने हजार वर्ष मैं आहार और उतने पखवारे में उच्छ्वास होता है । (१४०)
एषां कामाभिलाषे तु, देवोऽभ्यायान्ति चिन्तिताः सौधर्म स्वर्गवास्तव्यास्तद्योस्याः कान्ति भासुराः ।।१४१॥
इन देवों को काम की अभिलाषा उत्पन्न हो तब चिन्तन मात्र से सौधर्म देवलोक में रहने वाली देदीप्यमान कान्तिवाली उन देवों के योग्य अप्सराएं आती है । (१४१)
तद्राजधानी स्थानीयं मनोभवमहीपतेः । । दिव्यमुन्मादजनकं, स्वरूपं स्वर्गयोषिताम् ॥१४२ ॥ विलोकयन्तस्ते ऽक्षामकामाभिसमयादृशा । प्रतीच्छतः कटाक्षाश्च, तासामाकूतकोमलान् ।। १४३॥ एवं पश्यन्त एवामी, तृप्यन्तिसुरतैरिव॥ प्रागुक्तापेक्षया स्वल्पकामोकाः सुधाभुजः ॥१४४॥ . देव्योऽपि ताः परिणतैस्तादग्दिव्यानुभावतः । दूरादपि निजाङ्गेषु, तृप्यन्ति शुक्र .पुद्गलैः ॥१४५॥
कामदेव की राजधानी समान अप्सराओं के दिव्य-उन्मादक स्वरूप को देखते ही देव तीव्रतर कामरागात दृष्टि से देवियों के आशय के कटाक्षों को धारण कर केवल इस दृष्टि सुख से भी सुरत क्रीड़ा के समान तृप्त होते हैं क्योंकि पूर्व के देवों से इन देवों का कामोद्वेग अल्प होता है । इस प्रकार के दृष्टि सुख से दिव्य प्रभाव के कारण से देवियों के अंग में दूर से भी परिणाम होने के कारण शुक्र पुद्गलों से उन देवियों को भी परम तृप्ति होती है । (१४२-१४५)
सेवार्तेन बिना ये स्युः पञ्चसंहननाञ्चिताः । गर्भजास्ते नृतिर्यञ्च उत्पद्यतेऽत्र ताविषे ।।१४६॥ .
सेवार्त्त संहनन विना के पांच संहनन वाले गर्भज मनुष्य और तिर्यंच ही इस देवलोक में उत्पन्न होते हैं । (१४६)