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के योग्य अप्सरा-देवियां भी वहां आती हैं और उनके साथ में विषय सुख भोगती हैं । (६५-६६)
माहेन्द्रेन्द्रादयोऽप्येवं, देवेन्द्रा अच्युतावधि ।
चक्राकृति स्थानकादि, विकृत्य भुञ्जते सुखम् ॥६७॥
इस तरह से माहेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक के सभी इन्द्र महाराज चक्राकार स्थान बनाकर सुख भोगते हैं । (६७)
तत्र चक्राकृति स्थाने, प्रासादांस्तु सृजन्त्यमी ।। स्वस्व विमान प्रसादोत्तुङ्गान् सिंहासनाञ्चितान् ॥८॥
उस चक्राकृति स्थान के अन्दर अपने-अपने विमान के प्रासाद से भी ऊंचे सिंहासन से युक्त प्रासाद बनाते हैं । (६८)
एवमैश्चर्ययुक्तोऽपि, विरक्त इव धार्मिकः । महोपकारिणं प्राज्ञ, इव धर्ममविस्मरन् ॥६६॥ बहूनां साधुसाध्वीनां, जिनधर्मदृढात्मनाम । श्रावकाणां श्राविकाणां सम्यकत्वादिव्रतस्पृशाम् ॥१०॥ हितकामः सुखकामो, निः श्रेयसाभिलाषुकः । गुणग्राही गुणवतां, गुणवान् गुणिपूजकः ॥१०१॥ सनत्कुमाराधिपतिर्भव्यः सुलभबोधिकः । .. महाविंदेहंधूत्पद्य, भवे भाविनि सेत्स्यति ॥१०२॥
इस तरह से ऐश्वर्य युक्त होने पर भी जैसे पुरुष अपने महान उपकार नहीं भूलते हैं वैसे वैरागी धार्मिक के समान यह सनत्कुमार धर्म को कभी नहीं भूलता । जिन धर्म में दृढ़ बहुत सारे साधु-साध्वी और सम्यकत्वादि व्रतों को धारण करने वाले श्रावक श्राविका का हित को चाहने वाला सुख को चाहने वाले मोक्षाभिलाषी गुणवान के गुण ग्रहण करने वाला स्वयं गुणवान् और गुणवान के गुण को पूजने वाला मोक्षगामी, सुलभ बोधि श्री सनत्कुमारेन्द्र आगामी जन्म में महाविदेह में उत्पन्न होकर मोक्ष में जायेंगे । (६६-१०२)