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________________ (४६६) तिर्यक् पुनरसंख्येयान्, भर्तुद्वीपाम्बुधीन् क्षमः । सौधर्मशानाधिराजापेक्षया किल भूयसः ॥६१॥ यह इन्द्र महाराज अपनी वैक्रिय लब्धि से बने हुए रूपो से चार जम्बू द्वीपों को पूर्ण रूप में भरने में समर्थ है और वह तिर्थो को तो असंख्याता द्वीव व समुद्रों को भरने के लिए समर्थ हो सकता है और सौधर्म और ईशानेन्द्र की अपेक्षा से यहां असंख्यात् बड़ा समझना चाहिये । (६०-६१) भोगेच्छुस्तु सुधर्मायां, जिनास्थ्याशातनाभिया ।। जम्बूद्वीप समं स्थानं, चक्राकृति विकुर्वयेत् ॥६२॥ भोग की इच्छा वाला वह इन्द्र सुधर्मा सभा में भगवान के अस्थि आदि की आशातना के भय से जम्बूद्वीप समान चक्राकृति स्थान बनाता है । (६२) मध्ये रत्न पीठिकाढयं, प्रासादं रचयत्ययम् । .... षड़योजनशतोत्तुङ्ग, रत्नचन्द्रोदयाञ्चितम् ॥६३॥ . उसके मध्य में रत्न पीठिका युक्त प्रासाद रचना करता है वह प्रसाद छ: सौ योजन ऊंचा और रत्नों के चंदौवे से युक्त होता है । (६३) तत्र सिंहासनं रत्नपीठिकायां सृजत्यसौ । न शक्रेशानवच्छय्यां, संभोगा भावतस्तथा ॥१४॥ उस रत्नपीठिका ऊपर वह सिंहासन बनाता है, परन्तु सौधर्म और ईशानेन्द्र के समान शय्या नही बनाता है, क्योंकि उनको संभोग मैथुन नहीं होता है । केवल शरीर स्पर्श आदि होता है । (६४) सामानिकादिकाशेषपरिवारसमन्वितः । लज्जनीयरताभावात्तत्रोपैत्यथ वासवः ॥६५॥ सौधर्मस्वर्गवासिन्यस्तद्योग्यास्त्रिदशाङ्गनाः । तत्रायान्ति सहैताभिर्युक्ते वैषयिकं सुखम् ॥६६॥ लज्जनीय क्रीड़ा के अभाव होने के कारण सामनिकादि सम्पूर्ण परिवार से युक्त इन्द्र महाराज वहां आता है और सौधर्म देवलोक में रहने वाली सनत्कुमारेन्द्र
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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