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________________ (४६३) है, होठों का चुम्बन करता है, जंघा आदि प्रदेशो में स्पर्श करता है इस तरह स्पर्श मात्र से मैथुन क्रीड़ा के समान तृप्त हो जाता है । (६६-७०) देव्योऽपि ता: स्पर्शभोगैस्तथा दिव्य प्रभावतः ।। शरीरान्तः परिणतैस्तृप्यन्ति शुक्र पुद्गलैः ॥७१॥ वह देवी भी दिव्य प्रभाव के कारण से स्पर्श भोग-स्पर्श मात्र से भी शरीर के अन्दर परिणत हुए शुक्र पुद्गलों से तृप्त हो जाती है (७१) एवं पञ्चाक्षविषयास्वादाहादैर्निरन्तरम् । जानन्त्येते गतसपि, कालं नैकनिमेषवत् ॥७२॥ इस तरह से वह देव हमेशा पांच इन्द्रिय के विषय सुख के रसास्वाद के आह्लाद से एक आंख के पलकार के समान गये समय को नहीं जानता है । (७२) ज्ञानेनावधिना त्वेते द्वितीयां शर्कराप्रभाम् । पश्यन्त्यधस्तलं यावत्पद्मलेश्याः स्वभावतः ॥७३॥ इस देवलोक के देव अवधि ज्ञान से दूसरे शर्करा प्रभा पृथ्वी तक नीचे जा सकता है और उनके स्वभाव से ही पद्म लेश्या होती है । (७३) . गर्भजौ नरतिर्यञ्चौ, संख्येयस्थितिशालिनौ । उत्पद्यते इहैतेऽपि च्युत्वा यान्त्येतयोर्द्वयोः ॥७४॥ संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले गर्भज मनुष्य और तिर्यंच यहां जो उत्पन्न होते हैं और ये देव च्यवनकर गर्भज. मनुष्य और तिर्यंच में जाते हैं । (७४) एक सामयिकी प्राग्वत्संख्योत्पत्तिविनाशयोः । एक सामयिकं ज्ञेयं जघन्यं चान्तरं तयोः ॥७५॥ इस देवलोक में देवों की एक ही समय में उत्पत्ति और च्यवन की संख्या सौधर्म देवलोक के समान समझ लेना चाहिए । उत्पत्ति और च्यवन का अन्तर जघन्य से दोनों देवलोक में एक समय का होता है । (७५) युक्ता मुर्हत्तैविशत्या, दशभिश्च दिनाः क्रमात् । नव द्वादश च ज्येष्ठान्तरं स्यादनयोर्दिवोः ॥७६ ॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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