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सनत्कुमार में देवता जघन्य से दो सागरोपम और उत्कृष्ट से सात सागरोपम के आयुष्य वाले होते हैं । (४६)
माहेन्द्रे तु जघन्येन, साधिकाब्धिद्वयायुषः ।। उत्कर्षतः पुनः सातिरेक सप्तार्णवायुषः ॥४७॥
माहेन्द्र देवलोक के देवता जघन्य से कुछ अधिक दो सागरोपम और उत्कृष्ट से कुछ अधिक सात सागरोपम आयुष्य वाले होते हैं । (४७)
एकस्य सागरस्यांशाः, कल्प्यन्ते द्वादशेदृशाः । स्वर्गयोरेतयोर्भागा ज्ञेयाः स्थिति निरूपणे ॥४८॥
एक सागरोपम के बारह अंश कल्पना करना और इन अंश को दोनों तीसरे- चौथे देवलोक के प्रत्येक प्रतर के देवों के आयुष्य की गिनती के लिए उपयोग जानना।
प्रथम प्रतरे तत्रोत्कृष्टा जलनिधि द्वयम् । स्थितिः पञ्चलवोपेतं, द्वितीय प्रतरे पुनः ॥४६॥
दशभागााधिकं वार्द्धद्वयं स्थितिर्गरीयसी । • त्रिभिर्भागैः समधिकास्तृतीये सागरास्रयः ॥५०॥ . वां प्रथम प्रतर के देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम और 3. अंश की होती है. दूसरे प्रतर के देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम और १२ अंश की होती है और तीसरे प्रतर के देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम और १२ अंश की होती है । (४६-५०)
चतुर्थे प्रतरे साष्टभागं वारांनिधित्रयम् । - पञ्चमे सैकभागं च, वारांनिधि चतुष्टयम् ॥५१॥
चौथे प्रतर के देवों का आयुष्य तीन सागरोपम और 5 अंश होता है । पांचवे प्रतर के देवों का आयुष्य चार सागरोपम और २३ अंश होता है । (५१)
षड्भागाभ्यधिकं षष्ठे तदेव सप्तमे पुनः।। न्यूनमेकेन भागेन, सागरोपम पञ्चकम् ॥५२॥