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(४५८)
षड्विंशतिः शतान्येषु, पृथ्वी पिण्डो निरूपितः । शतानि षड् योजनानां, प्रासदाः स्युरिहोच्छ्रिता ॥४०॥
इन विमान में छब्बीस सौ (२६००) योजन का पृथ्वीपिंड कहा है और उसके ऊपर छ: सौ योजन ऊँचे प्रासाद विमान होते हैं । (४०)
सौधर्मेशाननिष्ठानां, विमानानामपेक्षया । ... अत्युत्कृष्टवर्णगंधरसस्पर्शाअमी मताः ॥४१॥
सौधर्म और ईशान देवलोक के विमान की अपेक्षा से इन विमानों के वर्ण, गंध, रस. स्पर्श अति उत्कृष्ट होते हैं । (४१)
सौधर्मेशानवच्छेषं, स्वरूपं भाव्यतामिह । विष्कम्भायाम परिधिमानं तु प्राक् प्रदर्शितम् ॥४२॥ ..
इन दोनों देवलोक के विमानो का शेष स्वरुप सौधर्म एवं ईशान देवलोक के विमानो के समान समझना तथा लम्बाई; चौड़ाई एवं परिधि पहले कहा है । (४२)
- अर्थतेषु विमाननेषु, पूर्व पुण्यानुसारतः।
उत्पद्यन्ते सुरास्तत्र, रीतिस्तु प्राक् प्रपंचिताः ॥४३॥
इन विमानों के अन्दर पूर्व पुण्यानुसार देवता उत्पन्न होते हैं और इनकी उत्पत्ति पहले कही है उसके अनुसार जानना । (४३)
पद्मके सरवद्गौरास्तेऽथ सर्वाङ्गभूषणाः । वराहचिह्न मुकुटा, सनत्कुमार नाकिनः ॥४४॥ ..
सनत्कुमार के देव गुलाबी गोर वर्ण वाले तथा सर्वांगभूषण वाले होते हैं तथा उनके मुकुट में वराह का चिह्न होता है । (४४)
सिंहचिह्न धारिचारु किरीटरम्यमौलयः ।
देवा विशिष्टद्युतयो, माहेन्द्रस्वर्गवासिनः ॥४५॥ ..
माहेन्द्र देवलोक के देवता विशिष्ट तेज वाले और मस्तक पर सिंह का चिन्ह वाले सुन्दर मुकुट को धारण करने वाले होते हैं । (४५) .
जघन्यतोऽपि पाथोधि द्वितीयस्थितयः सुराः । सनत्कुमारऽथोत्कर्षात्, सप्तसागरजीविनः ॥४६॥