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(४५२)
॥अथ सप्तविंशति तमः सर्ग प्रारभ्यते ॥
सर्ग सत्ताईसवां
सौधर्मेशाननामानावुक्तौ स्वर्गों सभर्टको । स्वरूपमुच्यते किं चित्तृतीयतुर्ययोरथ ॥१॥
सौधर्म और ईशान देवलोक का तथा इन्द्रों का वर्णन किया । अब तीसरे और चौथे देवलोक का कुछ स्वरूप कहता हूँ । (१)
सौधर्मेशाननाकाभ्यां, दूरमूर्ध्वं व्यवस्थितौ । योजनानामसंख्येयकोटाकोटिव्यतिक्र में ॥२॥ सनत्कुमार माहेन्द्रौ, स्वर्गों निसर्गसुन्दरौ ।... सौधर्मेशानवदिमावप्ये कवलयस्थितौ ॥३॥
सौधर्म और ईशान देवलोक के ऊपर अत्यन्त दूर, असंख्य कोटा कोटि योजन ऊपर जाने के बाद कुदरत रूप में सुन्दर सनत कुमार और महेन्द्र देवलोक सौधर्म और ईशान् देवलोक के समान एक गोलाकार से रहे हैं । (२-३)
संस्थानमर्द्धचन्द्राभं प्रत्येकमनयोर्भवेत् । उभौ पुनः समुदितौ, पूर्णचन्द्राकृतीमतौ ॥४॥
दोनों देवलोक का संस्थान अर्ध चन्द्राकार से होता है और दोनों के संस्थान को मिलाने से पूर्ण चंद्राकार होता है ।
तत्रापि सौधर्मस्योर्ध्वं समपक्षं समानदिक् । . सनत्कुमार ईशानस्योर्ध्व माहेन्द्र एव च ॥५॥
उसमें भी सौधर्म के बराबर ऊपर समान दिशा में सनत्कुमार देवलोक है और ईशान के ऊपर माहेन्द्र देवलोक होता है । (५) .
प्रतरा द्वादश प्राग्वद्, द्वयोः संगतयोरिह । प्रतिप्रतरमे कै कं , भवद्विमानमिन्द्रकम् ॥६॥