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(४५१) काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे । षड्विंशोमधुरः समाप्तिमगमत्सगौ निसर्गोज्जवलः ॥६६७॥
विश्व को आश्चर्य करने वाली कीर्ति वाले उपाध्याय श्री कीर्ति विजय जी गणिवर के शिष्य माता राज श्री और पिता तेजपाल के पुत्र विनय विजय जी अर्थात कि मैंने निश्चित जगत के तत्वों के लिए प्रदीप समान जो काव्य-लोक प्रकाश काव्य है उसमें स्वाभाविक उज्जवल और मधुर स्वरूप छब्बीसवां सर्ग यह समाप्त किया है। (६६७)
इति श्री लोक प्रकाशे षड्विंशः सर्गः समाप्त १०८४॥
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