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(४५०) .. . असकृच्चाहतां भावपूजामपि करोति सः । अष्टोत्तरं नट नटीशंत विकृत्य नर्तयन् ॥६६२॥
और १०८ नर नारियों (नट-नटी) की रचना करके नृत्य पूर्वक बारम्बार अरिहंत भगवन्त की भावपूर्वक पूजा भी करते हैं । (६६२)
देवपर्षसपक्षं च, चमत्कारातिरे कतः । प्रशंसति नरस्यापि, धर्मदाढर्यादिकं गुणम् ।।६६३॥ -
दृढतापूर्वक धर्म आराधना करते धर्मात्मा को देखकर उसके चमत्कार के . अतिरिक्त देवकी पर्षदा समक्ष मनुष्य के भी धर्म की दृढ़ता आदि गुणों की प्रशंसा करते हैं । (६६३)
आराध्यानेकधा धर्म, सम्यक्त्वाद्येवमुत्तमम् । समाप्यायुः सातिरेकं सागरोपमयोर्द्वयम् ॥६६४ ॥ इतश्च्युत्वेशानराजो, महाविदेह भूमिषु । उत्पद्य प्राप्तचारित्रो, भावी मुक्तिवधूधवः ॥६६५॥
इस तरह से ईशानेन्द्र उत्तम सम्यकत्व आदि धर्म की अनेक प्रकार से आराधना करके साधिक दो सागरोपम का आयुष्य पूर्ण करके यहां से च्यवन कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर चारित्र स्वीकार करके मुक्ति वधू के स्वामी बनेगें अर्थात् मोक्ष गामी होंगे । (६६४-६६५)
इत्थंमया पुथूसुखौ प्रथम द्वितीयौ, स्वर्गावनर्गलशुभाचरणाधिगम्यौः साधीश्वरौश्रुतवतां वचनानुसाराद्यावर्णितौ। विभव शालि सुरालिपूर्णो ।।६६६॥ इन्द्रवज्रा।
.. इस तरह से वैभवशाली देवताओं से पूर्ण, अत्यन्त सुखवाले अनर्गल शुभ आचरण से प्राप्य प्रथम और द्वितीय स्वर्ग का तथा उनके इन्द्रों का वर्णन ज्ञानियों के वचनानुसार मैंने किया है । (६६६)
विश्वाश्चर्यद कीर्त्तिकीर्ति विजय श्री वाचकेंद्रांतिष - द्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः ।
निस
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