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________________ (४४६) श्री भगवती सूत्र के तीसरे शतक पहले उद्देश में कहा है कि - हे प्रभु ! देवों के राजा, देवों के इन्द्र शक्र ईशानेन्द्र को विवाद उत्पन्न होता है ? गौतम ! हाँ, होता है इत्यादि आया है । कदाचिच्च तथा कुद्धौ, युद्धसज्जौ परस्परम् । सामानिकादयो देवा, उभयोरपि संमताः ॥६५६।। अर्ह इष्टाक्षालनाम्बुसेकात्तौ गतमत्सरौ । निर्माय निर्मायतया, बोधयन्ति नयस्थित्तिम् ॥६५७॥ किसी समय क्रोध में आकर परस्पर युद्ध करने के लिये तैयार हो जाते हैं उस समय दोनों के मान्य-सामानिक देवता श्री अरिहंत भगवन्त की दाढा के प्रक्षाल का पानी छांट करके उसे शान्तकर.सरलकर न्याय समझाते हैं । (६५६-६५७) पश्यतातितमां रागद्वेषयो१र्चिलघं ताम् । यदेताभ्यां विडम्ब्येते, तादृशावप्पधीश्वरौ ॥६५८॥ देखो-देखो राग द्वेष कितना दुर्लध्य है कि जो रागद्वेष द्वारा ऐसे महान इन्द्र भी विडम्बना प्राप्त करते हैं । (६५६) : एवमीशानदेवेन्द्रोऽनुभवन्नपि वैभवम् । अर्हन्समर्हद्धर्मं च, चित्तान्न त्यजति क्षणम् ॥६५६॥ इस तरह से ईशानेन्द्र वैभव का अनुभव करने पर भी श्री अरिहंत परमात्मा और श्री अरिहंत के धर्म को चित्त से क्षणवार भी नहीं छोडते हैं । (६५६) उत्तरार्द्ध जिनेन्द्राणां, कल्याणकेषु पञ्चसु । करोत्यग्नेसरी भूय, सहोत्साहं महोत्सवान् ॥६६०॥ उत्तरार्ध लोक के श्री जिनेश्वर भगवन्तों के पाँच कल्याणक में अग्रेसर बनकर उत्साहपूर्वक महोत्सव करते हैं । (६६०) जिनेन्द्रपादान् भजते , भरतैरवतादिषु । नंदीश्वरे च प्रत्यब्दं, करोत्यष्टाहिकोत्सवान् ॥६६१॥ . भरत और ऐरावत आदि में श्री जिनेश्वरों की सेवा करते हैं और प्रत्येक वर्ष नंदीश्वर द्वीप में आठ दिन महोत्सव करते हैं । (६६१)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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