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________________ (४४७) ईशानेन्द्रस्तु सौधर्माधिपतेरान्तिकं सुखम् । यात्तीक्षते जल्पति च नास्यानुज्ञामपेक्षते ॥६४५॥ जबकि ईशानेन्द्र तो सौधर्मेन्द्र के पास में अनुज्ञा की अपेक्षा बिना ही सुखपूर्वक जा सकता है, बोल सकता है और देख सकता है । (६४५) एवमुत्पन्नेषु नानाकायेषु च परस्परम् । संभूयं गोष्ठीमप्येतो, कुर्वातेप्रश्रयाश्रयौ ॥६४६॥ इस तरह से अलग-अलग प्रकार के कार्य के समय पर दोनों इन्द्र परस्पर मिलकर आदर-विनयं को प्राप्त करते वे परस्पर बातचीत करते हैं । (६४६) गच्छेत्कदाचिदीशाननाथोऽपि प्रथमान्तिकम् । सौधर्मेन्द्रोऽप्यनुज्ञाप्य, यायादेतस्य सन्निधौ ।।६४७॥ किसी समय ईशानेन्द्र, सौधर्मेन्द्र के पास में जाता है और कभी सौधर्मेन्द्र ईशानेन्द्र को कहकर उनके पास में जाता है । (६४६) भो दक्षिणार्द्धलोकेन्द्र सौधर्मेन्द्र ! हितावहम् । कार्यमेतदिति गिरा, वदेदीशाननायक : ।।६४८॥ ईशानेन्द्र, सौधर्मेन्द्र के साथ में बात करता है उस समय कहते हैं - हे दक्षिणार्द्ध लोकेन्द्र ! सौधर्मेन्द्र ! 'यह कार्य हितकारी है' इस तरह से बात करते हैं । (६४८) उत्तरार्द्ध लोकनेतों ईशानसुरेश्वर!। सत्यमित्यादिकृत्यौधानुभौ विमृशतो मिथः ॥६४६॥ उस समय सौधर्मेन्द्र उत्तर देता है - हे उत्तरार्ध लोकेन्द्र ! ईशानेन्द्र ! तुम्हारी बात सत्य है. इस तरह से कहकर परस्पर कार्य का विचार करते रहते हैं । (६४६) . तथाहुः - 'प्रभूणं भंते ! सक्के दे विंदे देवराया ईशाणस्स देविदस्स देव ।। रण्णो अंति अंपाउब्भ वित्तए ? हंता पभू !' इत्यादि भगवती सूत्रे ३१ ॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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