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एषामपत्यस्थानीय देववक्तव्यतादिकम् । सर्वमप्यनुसंधेयं, सुधिया पूर्ववर्णितम् ॥६३५॥ कित्वमीषामौत्तराहा, वस्या स्युरसुरादयः । उदीच्यामेव, निखिलोऽधिकारः पूर्ववर्णितः ॥६३६॥ .
चारों लोकपालों के पुत्र स्थानीय देवता आदि की बात पूर्व के समान वृद्धि से समझ लेना, विशेष केवल इतना है कि इस देवलोक के वशवर्ती असुरादि देवता उत्तर दिशा के सम्बन्धी समझना चाहिये । (६३५-६३६) ।
तथा :- चउसुविमाणे सुचत्तारि, उद्देशा अपरिसेसा नवरंठितीएणाण त्त ।
कहा है कि चार विमानों में चार वस्तुएं समान होती हैं केवल आयुष्य की स्थिति में भिन्नता होती है । . . .
आदिदुगि तिभागूणा पलिया छणयस्य होंति दो चेव। - दो सति भागा वरुणे पलियमहावच्चदेवाणं ॥६३७॥
पहले दो लोकपाल का. पल्योपम कम दो पल्योपम का आयुष्य होता है, धनद लोकपाल का दो पल्योपम का आयुष्य होता है और वरुण लोकपाल का आयुष्य पल्योपम भाग युक्त दो पल्योपम का होता है इत्यादि श्री भगवती सूत्र में कहा है । (६३७) तथा - स्थितेरल्पत्वेऽप्यमीषामाज्ञैश्वर्य भवेन्मत् ।
. लोकेऽल्पविभवत्वेऽपि नृपाधिकारिणामिव ।।६३८॥ . जैसे राजा का अधिकारी अल्प वैभव वाला होने पर भी विशिष्ट सत्ता वाला होता है वैसे आयुष्य से अल्प होने पर भी इस लोकपाल का ऐश्वर्य सत्ता महान होता है । (६३८).
उक्ता दशाधिपतयः, सौधर्मे शानयोर्यतः ।
सूत्रे तत्र सुरेन्द्रौ द्वौ, लोकपालास्तथाऽष्ट च ॥६३६॥
इससे ही सूत्र में सौधर्मेन्द्र और ईशानेन्द्रः देवलोक के अधिपति कहे हैं । उसमें दो इन्द्र (सौधर्मेन्द्र-ईशानेन्द्र और उसके चार-चार, आठ लोकपाल समझें इस तरह से २ + ८-१० होता है । (६३६)