________________
(४३८) आराध्यानेकवर्णाणि, धर्ममन्ते प्रपद्य च । द्वौ मासौ प्रायमीशाने, वायस्त्रिंशकंत्तां दधुः ।।८६४॥
इस इन्द्र महाराज के तेतीस -त्रायस्त्रिंश देवता, तेतीस के तेतीस चंपा नगरी के रहने वाले प्रिय मित्र थे और यावत्जीव तक उग्र रुप में श्री अरिहंत परमात्मा के शासन की आराधना-क्रिया में तत्पर थे, अनेक वर्षों तक धर्म की आराधना करके
और अन्त में (यहाँ प्रायः शब्द का अर्थ ही अनशन होता है) दो महीने का अनशन करके ईशान् देवलोक त्रायस्त्रिंशक देव में उत्पन्न हुए हैं । (८६३-८६४)
सहस्त्राणि भवनत्यस्याशीतिः सामानिकाः सुराः। दिशां चतुष्के प्रत्येकं, तावन्त आत्मरक्षकाः ॥८६५॥ ...
ईशानेन्द्र के अस्सी हजार सामनिक देवता होते हैं और उतने ही अस्सी हजार प्रत्येक दिशा में आत्म रक्षक देव होते हैं । (८६५)
दशादेवसहस्त्राणि, स्युरभ्यन्तरपर्षदि ।
शतानि नव देवीनामिहोक्तानि जिनेश्वरैः ।।८६६॥
इस ईशानेन्द्र की अभ्यन्तर पर्षदा में दस हजार देवता होते हैं और नव सौ देवियाँ श्री जिनेश्वर ने कही है । (८६६) .
मध्यमायां सहस्त्राणि, स्युादश सुधाभुजाम् । उदितानि शतान्यष्टौ देवीनामिह. पर्षदि ।।८६७॥
उसकी मध्यम पर्षदा बारह हजार देवताओं की होती है और आठ सौ देवियाँ होती हैं । (८६७)
चतुर्दश सहस्त्राणि, सुराणां बाह्यसंसदि । . .. शतानि सप्त देवीनामथायुरुच्यते क्रमात् ।।८६८॥
बाह्य पर्लदा में चौदह हजार देवता होते हैं और सात सौ देवियाँ होती हैं । अब क्रमानुसार आयुष्य कहते हैं । (८६८)
सप्तपल्योपमान्यायुरन्तः पर्षदि नाकिनाम् । पल्योपमानि पञ्चाशद्देवीनां कथिता स्थितिः ॥८६८॥ .