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कहा है कि साठ हजार वर्ष तक इक्कीस बार पानी से धोकर अन्न से तामली ने तप का पारणा किया था, परन्तु वह अज्ञान तप होने से अल्पफल प्राप्त किया । (८८७) जनप्रवादोऽपि-तामलितणइ तवेण जिणमइ सिज्झइ सत्तजण।
... अन्नाणहदोसेण, तामलिईसाणइं गयो ।।८८७॥
लोगों में भी कहा जाता है - तामलि जितने तप से जिनमति वाले सात जनआत्मा मोक्ष में जा सकते हैं जबकि अज्ञान के दोष से तामलि केवल ईशानेन्द्र ही बना । (८८८)
तथाप्यस्य निष्फलत्वं, वक्तुं शक्यं न सर्वथा । .. सज्ञानाज्ञानतपमो, फले कुतोऽन्यथाऽन्तरम् ॥८८६॥
फिर भी इस तप को सर्वथा निष्फल नहीं कह सकते, नहीं तो सज्ञान और अज्ञान तप के भेद पड़ते ही नहीं । (८८६) . उक्तं- जं अन्नाणी कम्मं खवेइ, बहुयाहिं वासकोडीहि ।
तं नाणी तिहि गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ।।८६०॥ . कहा है कि अज्ञानी करोड़ वर्ष से जिस कर्म को खत्म करता है उस कर्म को तीन गुप्ति से गुप्त ज्ञानी एक श्वासोच्छ्वास में खत्म करता है । (८६०) .
सति मिथ्याशा मेव, सर्वथा निष्फलां क्रियाम् ।। असत्फलां वा मन्वानास्तन्वते बाल चेष्टितम् ।।८६१॥
इस कारण से मिथ्याद्दष्टि की क्रिया है वह सर्वथा एकान्त से निष्फल अथवा अल्पफल वाली है, उसे बाल चेष्टा रूप कहा गया है । (८६१)
ततश्चेशाननाथोऽयं, प्राग्वजिनार्चनादिकम् । कत्वा सुधर्मासदसि सिंहासनमशिश्रियत् ।।८६२॥
उसके बाद ईशानेन्द्र पूर्व के समान जिनेश्वर प्रभु की पूजा आदि करके सुधर्मा सभा में सिंहासन पर बैठता है । (८६२)
प्रायस्त्रिंशास्त्वस्य चम्पावास्तव्याः सुहृदः प्रियाः । त्रयस्त्रिशान्मिथो यावज्जीवमुग्रार्हतक्रियाः ॥८६३॥