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अधम तामलि तापस धूर्त्त है, साक्षात् दंभ की मूर्ति है, देखो इस तरह विडंबना की जाती है । यह ईशानेन्द्र रूप में उत्पन्न हुआ है, यह हमारा क्या करेगा ? अधम तापस हमारे सामने क्या हस्ती है ? असुर देवों से अपने स्वामी के पूर्व देह की कदर्थना होती देखकर, रूष्ट बने ईशान देवों ने अपने स्वामी को निवेदन किया । उपपात शय्या में ही रहे ईशानेन्द्र के दिव्य प्रभाव से चारों तरफ से बलि चंचा नगरी में अंगारे बिछाये हों इस तरह अथवा तो तपे हुए लोहे की शिला समान दुस्सह बन गयी गरमी की पीड़ा से दुःखी बने वे असुर देव वहां रहने के लिये असमर्थ हो गये, उनके प्राण कंठ में आ गये, चारों तरफ भयभीत वातावरण बन गया, अतः इधरउधर दौड़ते हुए सभी असुर एकत्रित होकर ईशान् इन्द्र को साष्टांग नमस्कार करके उनसे क्षमायाचना की- हे स्वामिन् ! दुष्ट द्दष्टि वाले हमारे द्वारा अज्ञान पूर्वक आप श्री का इस प्रकार से अपराध हो गया है। अब पुनः ऐसा नहीं करेंगे, क्षमा करो, क्षमा करो हम आप श्री के सेवक हैं, इस तरह बारम्बार करूण स्वर से विलाप करते उन असुरों को देखकर दयालु ईशांनेन्द्र अपनी शक्ति को शान्त कर दिया और उस असुर को भी सुख हुआ । (८७४-८८४)
एवं तामलिना बालतपसेन्द्र त्वमर्जितम् । सम्यकत्वैकावतारत्वे, प्राप्य तीर्णो भवार्णवः ॥ ८५ ॥
इस तरह से तामलि ने बालतप से इन्द्रत्व प्राप्त किया था तथा सम्यकत्व और एकावतारी रुप प्राप्त करके उसने वास्तविक में संसार समुद्र को पार कर लिया था। (८२५)
जैनक्रियापेक्षयेदं, यद्यप्यल्पतरं फलम् ।
सम्यग्द्दष्टिर्हि तपसा मुक्तिमीद्दशा ॥८८६॥
यद्दपि जैन क्रिया की अपेक्षा से तो यह इन्द्र पद को प्राप्त करना अल्पतर फल कहा है। यदि सम्यग्द्दष्टि जीवात्मा ने ऐसा तप किया हो तो ऐसे तप से मोक्षपद की प्राप्ति होती है । (८८६)
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अणुचिन्तामलिणा, अण्णाणतवत्तिअप्पफलो ॥ ८७ ॥"
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तथाहुः -‘“सट्ठि वाससहस्सा तिसत्तखुत्तोदएण धोए