SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४३४) .. मनाग्मनोऽस्मासु कुर्यास्तपस्विन्नधुना यदि । भवेम तव किं कर्यस्तपः क्रीत्यो भवावधि ।।८६६॥ तामलिस्तु तद्वचोभिर्मरुदिभरिव भूधरः । निश्चल स्तस्थिवांस्तूष्णी, ततस्तेऽगुर्यथास्पदम् ।।८७०॥ उस समय असुरेन्द्र की बली चंचा राजधानी इन्द्र रहित थी । वहां के इन्द्र के अर्थी असुर निकाय के देव देवी वर्ग तामली को देखकर विज्ञप्ति की कि - हे स्वामिन् ! नाथ बिना कि विधवा के समान हम लोग क्लेश प्राप्त कर रहे हैं, हमारे इन्द्राधीन सर्व मर्यादा-स्थिति कमजोर हो रही है इसलिए आप निदान करके हमारे स्वामी बनो । इस तरह से कहने पर उन तामली तापस के सन्मुख रहकर विविध प्रकार का नाटकादि दिव्य ऋद्धि को बारम्बार दिखाते हैं, देवांगनाए भी कहने. लगी - हे प्राण प्रिय ! कठोरता छोड़कर प्रेम दृष्टि से हमारे ओर एक बार देखो ! . जरा देखो! हे तपस्विन् ! अभी हमारे ओर थोड़ा सा मन हो तो तुम्हारा तप से खरीद की गई हम जीवन तक दासीत्व रूप स्वीकार करेगी । पवन से जैसे पर्वत चलायमान नहीं होता, वैसे उनके वचन से भी तामली तापस निश्चल और मौन रहे, इससे वे सभी अपने अपने स्थान में गये । (८६४-८७०) ईशानेऽपि तदा देवाश्चयुतं नाथास्तदर्थिनः । इन्दो पपातशय्यायामसकृ द्ददते 'दशम् ।।८७१॥ पष्ठिं वर्ष सहस्त्राणि, कृत्वा बालतपोऽद्भुतम् । मासयुग्ममनशनं, घृत्वा मृत्वा समाधिना ।।८७२॥ तत्रोपपात शय्यायां, तस्मिन् काले स तामलिः । ईशानेन्द्रतयोत्पन्नो, यावत्पर्याप्ति भागभूत् ॥८७३॥ इस तरफ ईशान देवलोक के देव भी अपने नाथ का च्यवन होने से नाथ की इच्छा वाले इन्द्र की उपपात शय्या में बारम्बार दृष्टि करते हैं उस समय में वह तामलि तापस साठ हजार वर्ष की अद्भुत बाह्य तप करके दो मास का अनशन धारण कर समाधिपूर्वक ईशानेन्द्र की उपवास शय्या में ईशान् इन्द रूप में उत्पन्न हुआ और पर्याप्तियों को प्राप्त किया । (८७१-७३)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy