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________________ (४३३) था और उस चावल को २१ बार पानी से धोकर उस नीरस आहार को ग्रहण करके तुरन्त ही छठम तप करता था इस तरह साठ हजार वर्ष तक अति दुष्कर तप को करते मांस रहित और कृश बन गया स्नायु और नसें सारी स्पष्ट दिखने लगी। (८४६-८६०) ततश्चिन्तयति स्मैष यावदस्ति तनौ मम ।। शक्तिस्तावदनशनं, कृत्वा स्वार्ध समर्थये ।।८६१॥ ध्यायन्नेवं ताम्रलिप्त्यां, गार्हस्थ्यव्रतसंगतान् । आपृच्छयलोकानेकान्ते,त्यकत्वापतद्ग्रहादिकम् ।।८६२॥ ऐशाम्यां मण्डलं पुर्या, आलिख्यानशनं दधौ । पादपो पगमं मृत्युमनाकांक्षश्च तिष्ठति।।८६३॥ उसके बाद उसने विचार किया कि - जब तक मेरे शरीर में शक्ति है वहां तक अनशन करके स्वार्थ को मैं सिद्ध कर दूं, इस तरह चिन्तन कर ताम्र लिप्ती नगरी में गृहस्थ जीवन में साथ में रहे लोगों को पूछकर पात्रादि को एकान्त में छोड़कर नगरी के ईशान कोने में मंडलाकार की रचना कर पादपो पगमन अनशन को धारण किया और मृत्यु की आकांक्षा बिना अनशन की अवस्था में रहे । (८२.१-८२३) - तदा चबलिचंञ्चाऽऽसीद्राजघानीन्द्रवर्जिता । तत्रत्याश्चासुरा देव देव्यो निरीक्ष्य तामलिम् ॥८६४॥ इन्द्रार्थिनः समुदित्तास्तत्रैत्येति ब्यजिज्ञपन् । क्लिश्यामहेवयं स्वामिन्निाथा विधवाइव ॥८६५॥ इन्द्राधीना स्थितिः सर्वा, सीदत्यस्माकमित्यतः । कृत्वा निदानमधिपा, यूयमेव भवन्तु नः ॥८६६॥ इत्यादि निगद्न्तस्ते, स्थित्वा तामलिसंमुखम् । नानानाट्यादिदिव्यर्द्धि, दर्शयन्ति मुहुर्मुहः ॥८६७॥ देवाङ्गना अपि प्राणप्रिय प्रेमद्दशैकशः । त्यक्तया कठिनतां कान्त ! निभालय निभालय ॥८६८॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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