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________________ (४३२) तत्र तं प्रणमन् पष्ठतपा आतापनामपि । कुर्वाणो भान्वभिसुखः पष्ठस्य पारणादिने ।।८५६ ॥ आतापनाभुवः प्रत्युत्तीर्य पुर्यां कुलान्यटन् । उच्चनीचमध्यमानि, भिक्षार्थमपराह्न के ॥८५७॥ नादत्ते सूप शाकादि, किंतु केवलमोदनैः । .. पूर्णे पतद्ग्रहे भिक्षाचर्यायाः सः निवर्त्तते ।।८५८॥ एकविंशतिकृत्वस्तं, प्रक्षाल्यौदनमम्बुभिः ।। ताद्दगीरसमाहार्य, पष्ठिं करोत्यनन्तरम् ।।८५६ ॥ एवं वर्ष सहस्त्राणि, पष्ठि तपोऽतिदुष्करम् । कुर्वन् क्शीयान्निराँसो, व्यक्तस्नायुशिरोऽभवत् ।।८६०॥ ईशानेन्द्र का पूर्वजन्म - इस वर्तमान काल में ईशानेन्द्र जम्बुद्वीप के भरत . क्षेत्र में ताम्र लिप्ती पुरी के अन्दर मौर्य का पुत्र तामलि नामक कोई धनवान सेंठ था। एक समय थोड़ी रात्रि शेष रही उस समय वह जागृत हुआ तब वह मन में विचार करता है कि - वास्तविक ! चारों तरफ विस्तृत यह समृद्धि.जो प्राप्त की है, वह पूर्व जन्म के महान पुण्य का फल है, उसमें किसी प्रकार की शंका का स्थान नहीं । वस्तुत: जब मैं पूर्व के संचित पुण्य को भोग रहा हूँ और नया पुण्य उपार्जन नहीं कर रहा हूँ, अत: यह पुण्य खत्म होने के बाद क्या करूगां? इसलिये जन्मान्तर में सुख को देने वाला कुछ पुण्य उपार्जन करना चाहिये । परन्तु वह गृहस्थ जीवन में संभव नहीं है, इस तरह विचार करके उसने सुबह प्रेमपूर्वक कुटुम्ब को बुलाकर ज्ञानी, मित्र, स्वजनादि को भोजन आदि से सत्कार करके बड़े पुत्र के ऊपर कुटुम्ब का भार आरोपण करके उनको पूछकर लकड़े का एक पात्र ग्रहण करके उसने 'प्राणाभा' नाम की दीक्षा स्वीकार की । 'प्राणाभा' अर्थात जो कोई भी प्राणी मिले, चाहे वह कौआ हो अथवा इन्द्र महाराज हो उन सबको नमस्कार करना । इस तरह से प्राणी मात्र को नमस्कार करते छठ के पारण के दिन में,आतापना के स्थान से नीचे उतर कर नगरी के अन्दर गृहस्थों के वहां ऊँचे-नीचे और मध्यम कुलों में भिक्षा के लिए दिन के तीसरे पहर में भ्रमण करता है । दाल-साग को नहीं ग्रहण करता था परन्तु केवल चावल से पात्र को भरता था उस भिक्षाचर्या से वापिस आता
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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