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तुरीयस्तु गृहपतेः, स च तद्गृह लक्षणः । पंचमः साधर्मिकस्य, पञ्च कोशावधिः स च ।।८३७॥
उसमें प्रथम अवग्रह-देवेन्द्र का होता है, जो सौधर्म और ईशान इन्द्र सम्बन्धी दक्षिणार्ध और उत्तरार्ध लोक का जानना । दूसरा अवग्रह चक्रवर्ती का है जो कि समस्त भरतादि क्षेत्र में समझना । तीसरा अवग्रह देश के अधिपति का होता है, वह उसके देश की मर्यादा तक होता है । चौथा अवग्रह घर मालिक-गृहपतिं का उसके घर सम्बन्धी होता है और पांचवा अवग्रह साधर्मिक का होता है जो कि पाँच कोश तक होता है । (८३५-८३७)
__ तथोक्त भगवती वृत्तो १६ शतक २ उद्देशके ‘साहाम्मिउग्गहे' त्ति समानेन धर्मेण चरन्तीति साधर्मिका: - साध्वपेवक्षया साधवः एतेषावग्रहःतदा भाव्यं पञ्चकोश परिमाणं क्षेत्रं, ऋतु बद्धे मासमेकं, वर्षासु चतुरो मासान् यावदिति साधर्मिकावगृहः ।
श्री भगवती सूत्र के सोलहवें शतक दूसरे उद्देश में कहा है कि साधर्मिक अवग्रह ‘साहम्मि उग्गहोत्ति' इस तरह है समान धर्म का आचरण करता है साधर्मिक कहलाता है, साधु की अपेक्षा से साधु यह साधर्मिक कहलाता है और इनका अवग्रह पाँच कोस का समझना चाहिये । शेषकाल में एक महीने तक और चातुर्मास में चार महीने तक साधर्मिक अवग्रह होता है ।
• आस्पद स्वामिनामेषां, पञ्चानामप्यवग्रहम् ।।
याचन्ते साधवस्तेषामपि पुण्यमनुज्ञया ।।८३८।।
इन पाँचौं स्थानों के स्वामी के पास साधु अवग्रह की याचना करता है और और अनुज्ञा देने से उन स्वामियों को भी पुण्य का बन्धन होता है । (८३८)
· श्रुत्वेति मुदितस्वान्तः, शचीकान्त प्रभुं नमन् । ऊंचे येऽस्मिन्ममं क्षेत्रे, विहरन्ति मुनीशवराः ।।८३६॥ तेषामवग्रहमह मनुजानमि भावतः । इत्युक्त्वाऽस्मिन्गते स्वर्गं, प्रभुं पप्रच्छ गौतमः ।।८४०॥