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( ४२८ )
ब्राह्मणीभूय यः कलिकं नृपं हत्वा तदङ्गजम् ।
दत्तं राज्येऽभिषिच्यार्हच्छासनं भासयिष्यति ॥ ८३० ॥
जो ब्राह्मण रूप करके कलिक राज को जिन शासन के ऊपर जुल्म करने वाले को मारकर उसके पुत्र 'दत्त' को राज्य ऊपर अभिषेक करके अरिहंत के शासन को प्रकाशित करेगा । ( ८३०)
जिनोपसर्गे यः संगम कामरकृते स्वयम् ।
निषिद्धय नाटकाद्युग्रं षण्मासान् शोक मन्वभूत ॥ ८३१ ॥
भष्टप्रतिज्ञं तं निर्वासयामास त्रिविष्टपात् । क्षणं मुमोच योऽर्हन्तं न चित्तात्परमार्हतः ॥ ८३२ ॥
संगम देवता से किए जिनेश्वर श्री वीर भगवंत के उपसर्ग समय में, उन्होंने स्वयं नाटकादि का निषेध करके छ: महीने तक अत्यन्त शोक का अनुभव किया था और उसके बाद प्रतिज्ञा भ्रष्ट होकर आते उस संगम को देवलोक में से निकाल दिया था । उस परमार्हत इन्द्र महाराज ने श्री अरिहंत परमात्मा को क्षण मात्र भी चित्त से नही छोड़ा । ( ८३१-८३२)
यः पालक विमानाधिरूढो राजगृहे पुरे ।
श्री वीरं समवसृतं वन्दिस्वेति व्यजिज्ञपत् ||८३३ ॥ अवग्रहाः कत्ति विभो ! भगवानाह पंच ते । स्वामिना स्वीक्रियते यस्सोऽवग्रह इति स्मृतः ॥ ८३४ ॥
पालक विमान ऊपर आरूढ होकर जिसने राजगृह नगरी में समवसरण में श्री वीर परमात्मा को वंदन करके विनती की थी कि हे भगवान! अवग्रहं कितने प्रकार के होते हैं ? तब भगवान ने कहा वे अवग्रह पाँच प्रकार के होते हैं। स्वामी से जो स्वीकार किया जाता है वही अवग्रह कहलाता है । (८३३-८३४)
देवेन्द्रावग्रहस्तव, प्रथमः स्यात्स चेन्द्रयोः । सौधर्मे शानयोर्लोक दक्षिणार्दोत्तरार्द्धयोः । । ८३५ ॥ द्वितीयश्चक्रिणा क्षेत्रेऽखिलेऽपि भरतादिके । तृतीयो मण्डलेशस्य, स च तन्मण्डलावधिः ||८३६॥