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यह आश्चर्य की बात है कि ऐसे ऐश्वर्य में आसक्त होने पर भी महामना इन्द्र महाराजा बीच-बीच में अवधिज्ञान से जम्बूद्वीप को देखते हैं । (८२४)
संघे चतुर्विधे तादृगुणवंत प्रशंसति । सुराणा पर्षदि चमत्कारचञ्चलकुण्डलः ॥२५॥
और उस समय देवताओं की पर्षदा में चमत्कार से कुंडलो को चंचल बनाते सिर हिलाते इन्द्र महाराज चतुर्विघ संघ में रहे गुणवानों की प्रशंसा करते हैं। (८२५)
दर्श दर्श जिनांश्चायमुत्सृष्टासनपादुकः । पंञ्चाङ्ग स्पृष्टभूपीठः, स्तौति शक्रस्तवादिभिः ।।८२६॥
श्री जिनेश्वर परमात्मा को देख देखकर यह इन्द्र महाराजा आसन और . पादुका का त्याग करके पंचांग से भूमि स्पर्श करके शक्र स्तवादि से स्तुति करते हैं । (८२६)
छाद्मस्थ्ये वर्द्धमानं यः, प्रौढ भक्तिवृत्यंजिज्ञपत् । . द्वादशाब्दी तव स्वानिमं!, वैयावृत्यं करोभ्यहम् ।।८२७॥
प्रयुक्तश्चभगवता, नेदमिन्द्र, भवेत्क्कचित् ।
यदर्हन्निन्द्र साहाय्यात् कोऽपि कैवल्यमाप्नुयात् ।।८२८॥ . उनकी प्रौढ भक्ति पूर्वक छद्मस्थ रूप में रहे श्री वीर परमात्मा को विज्ञप्ति की थी कि हे भगवन्त ! मैं आपश्री की बारह वर्ष सेवा वैयावृत्य करना चाहता हूँ, उस समय परमात्मा ने कहा - 'हे इन्द्र ! इस तरह कभी बना नहीं है कि किसी भी अरिहन्त ने इन्द्र की सहायता से केवलज्ञान को प्राप्त किया हो ।' (८२७-८२८)
यो दशार्णेशबोधाय, ऋद्धि विकृत्य तादृशीम् । नत्वाऽर्हन्तं नृपमपि, क्षमयामास संयतम् ।।८२६॥
जिसने दशार्णभद्र को बोध के लिए इस प्रकार की ऋद्धि की रचना कर फिर अरिहंत को नमस्कार किया और उसे देखकर दीक्षित बने दशार्ण भद्र राजा ऋषि को नमस्कार करके क्षमा याचना की थी । (८२६)