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________________ (४३०) सत्यवादी सत्यमाह, शक्रोऽयमथवाऽन्यथा । जिनेनापि तदा सत्यवादीत्येष प्रशंसितः ।।८४१।। इस तरह से सुनकर खुश हुए अंत:करण वाले इन्द्र महाराज ने प्रभु को नमस्कार करके कहा कि - इस मेरे क्षेत्र में जो मुनिवर्य विचरण करते हैं, उनको मैं भावपूर्वक अवग्रह की अनुज्ञा देता हूँ । इस तरह कहकर स्वर्ग में गया, उस समय. में श्री गौतम स्वामी ने वीर परमात्मा को पूछा - हे भगवान् ! सत्यवादी इस.शकेन्द्र के अवग्रह की अनुज्ञा भाव से सत्य है या किस तरह ? तब परमात्मा ने भी इन्द्र महाराजा सत्यवादी हैं इस तरह कहकर उसकी प्रशंसा की । (८३६-८४१) एवं योऽनेकधा 'धर्ममाराध्येतः स्थितिक्षये । विदेहे घूत्यद्य चैकावतारो मुक्तिमाप्स्यति ।।८४२ .. इस तरह से वह अनेक प्रकार से धर्म की आराधना करके यहाँ से इन्द्र पने . से आयुष्य का क्षय होने के बाद महाविदेह में उत्पन्न होकर एकावतारी बनकर मुक्तिगामी होगा । (८४२) अस्मिश्चयुते च स्थानेऽस्य पुनरुत्पत्स्यतेऽपरः । । एवमन्येऽपि शक्राद्या, यथा स्थानं सुरासुराः ।।८४३॥ इस शकेन्द्र के च्यवन बाद इसके स्थान पर अन्य इन्द्र उत्पन्न होगा । इस तरह अपने-अपने स्थान में शक्र-देव-दानव आदि उत्पन्न होते हैं । (८४३) ईशानदेवलोक स्य, प्रतरे ऽथ त्रयोदशे । मेरोरूत्तरतः पंञ्च स्युर्विमाना वतंसकाः ।।८४४॥ दूसरे देवलोक का वर्णन करते हैं - दूसरे ईशान देवलोक के तेरह प्रतर में मेरु पर्वत की उत्तरदिशा में पांच अवतंसक विमान है । (८४४) अंकावतंसकं प्राच्या, विमानमस्ति शस्तभम् ।। दक्षिणस्यां स्फटिकावतंसकाख्यं निरुपितम् ।।८४५॥ अपरस्यां तथा रलावतंसकमिति स्म्तम । उत्तरास्यां जात रूपा वतंसकाभिधं भवेत् ॥८४६॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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