________________
(४२५)
सर्वकामश्समृद्ध, अमोघ असंग आदि देवता कुबेर देवता के प्रियतम समान होते
हैं । (८१२-८१३).
,
असौ कृत्वोत्तुङ्गगेहां, स्वर्णप्राकारशोभताम् ।
प्रददावादिदेवाय, विनीतां स्वः पतेर्गिरा ॥ १४ ॥
इस कुबेर देवता ने इन्द्र महाराज की आज्ञा से श्री आदिनाथ भगवान को ऊँचे प्रासाद वाली, स्वर्ण के किले से शोभायमान विनीता नगरी बनाकर समर्पण की थी
(८१४)
कृष्णाय द्वारिकामेवं कृत्वा शक्राज्ञया ददौ ।
जिन जन्मादिषु स्वर्णे, रत्नौधैश्चाभिवर्पति ॥ ८१५ ॥
तथा इन्द्र महाराज की आज्ञा से कृष्ण महाराज को द्वारिका नगरी बनाकर दी थी और श्री जिनेश्वर भगवन्त के जन्मादि कल्याणक में स्वर्ण और रत्नों की वृष्टि करते हैं । (८१५)
.
समृद्धश्च वदान्यश्च, लोकेऽनेनो पमीयते ।
सिद्धान्तेऽपि दान शूरतयाः गणधरैः समृतः ॥ ८१६ ॥
जंगत में धनवान और दानेश्वर को कुबेर रूप में उपमा दी जाती है । सिद्धान्त में भी गणधरों ने कुबेर को दानशूरा कहा है । ( ८१६)
तथाहु: खमासूरा अरिहंता, तवशूरा अणगाराः ।
दाणसूरा वेसभणा, जुद्धसूरा वासुदेवाः ।।८१६अ।।
वह इस तरह से " क्षमाशूरा अरिहंत परमात्मा होते हैं, तपशूरा साधु मुनिराज होते हैं, दानशूरा कुबेर होता है और युद्धशूरा वासुदेव कहलाता है ।" (८१६अ)
एष वै श्रमण: पूर्ण पल्योपमद्वयस्थितिः ।
सुखान्यनुभवत्युग्र पुण्यप्राग्भार भासुरः ||८१७ ॥
पूर्ण दो पल्योपम के आयुष्य वाला यह कुबेरदेव उग्र-महान पुण्य के समूह
से देदीप्यमान सुख का अनुभव करता है । (८१७)
तथोक्तं - सोम जयाणं सति भाग पलियं वरुणस्स दुन्नि देसूणा । वेसयणे दो पलिया एस ठिई लोगपालणं ॥ ८१८ ॥