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यदा शक्रः सहैताभिः कामक्रीडां चिकीर्षति ।
चारु चक्राकारमेकं, तदा स्थानं विकुर्वयेत् ॥ ७४८ ॥
पंच वर्ण तृणमणिरमणीय महीतलम् । व्यासायामपरिक्षेपैर्जम्बूद्वीपोपमं च तत् ॥७४६॥
जिस समय इन्द्र महाराज इन सब देवियों के साथ कामक्रीड़ा करना चाहता है, उस समय एक सुन्दर चक्राकार स्थान बनाता है जो कि पंचवरणीय तृण और मणि से रमणीय भूमितल वाला है और लम्बाई चौड़ाई से जम्बू द्वीप के समान विस्तार वाला यह स्थान होता है । ( ७४८-७४६)
मध्यदेशेऽस्य रचयत्येकं प्रासादशेखरम् ।
योजनानां पंच शतान्युचं तदर्द्धविस्तृतं ॥७५०॥
और उसका मध्य भाग में पाँच सौ योजन ऊँचा, अढ़ाई सौ योजन चौड़ा मुख्य प्रासाद बनाने में आता है । (७५०)
तस्य प्रासादस्य नानामणिरत्नमयी मही ।
ऊर्ध्वभागोऽप्यस्य पद्मलतादिभक्तिशोभितः ॥७५१ ॥
उस प्रसाद की पृथ्वी विविध प्रकार के रत्न और मणिमय होती हैं और इसके ऊपर छंत्त पद्मलतादि चित्रों की विविध रचना से शोभती है । ( ७५१)
तस्यप्रासादस्य मध्ये, रचयेन्मणिपीठिकाम् ।
योजनान्यष्ट विस्तीर्णायतां चत्वारिमेदुराम् ॥७५२॥
उस प्रासाद के मध्य विभाग में आठ योजन लम्बा चौड़ा और चार योजन ऊँचा एक सुन्दर मणि पीठिका रचना करते हैं ।
तस्या मणीपीठिकाया, उपर्येकां मनोहराम् । विकुर्वयेद्दिव्यशय्यां, कोमलास्तरणास्तृताम् ॥ ७५३॥ रत्नश्रेणि निर्मित्तोरुप्रतिपादकृतोन्नतिम् । गाथामिवोद्यत्सुवर्ण चतुष्पादी सुखावहाम् ॥७५४॥ युग्मं ॥
उस मणि पीठिका के ऊपर कोमल चादर से ढकी हुई एक मनोहर दिव्य शैय्या देवों ने बनाई हुई होती है और रत्न श्रेणि से निर्मित बड़े चार स्तंभ से वह