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(४११) अचिन्त्यपुण्यात्तंतेषां, प्राप्य प्रहरणात्मताम् । सुभूमचक्रिणः स्थालमिव प्रहरति द्विषः ।।७२६॥ तदेतेषां प्रहरणेष्वसत्स्वपि न हि क्षतिः । असुराणां तु नैतादृक्, शक्तिः पुण्यापकर्षतः ॥७३०॥ . नित्यान्येते ततोऽस्त्राणि वैक्रियाणि च विभ्रति । सस्मयाः सुभटं मन्यास्तथाविधनरादिवत् ।।७३१॥
इस तरह अन्य वैमानिक देवताओं को जब भव प्रत्यय बैर से असुर देवताओं के साथ में युद्ध होता है, उस समय वैमानिक देव काष्ठ-पत्ते, घास, पत्थर के कण को भी हाथ से स्पर्श करे तो सभूम चक्रवर्ती के थाल समान उसको अचिन्य पुण्य प्रभाव से शस्त्र बन कर शत्रुओं को मारता है, इससे वैमानिक देवताओं के पास में शस्त्र आदि के अभाव में भी किसी प्रकार का कष्ट नही है । जब असुर देवताओं को पुण्य अल्पता होने के कारण इस प्रकार की शक्ति नहीं होती कि जिससे यह असुर देवताओं के बनाये अस्त्रों को कायम धारण करते हैं और शस्त्र धारण करके गर्व युक्त बनकर अपने जात को सुभट मानते हुए मनुष्य के समान रहते हैं । इस तरह से युद्धादि करते रहते हैं । (७२७-७३१) . तथाः - देवसुराणं भंते ! संगामे किं णं तेसिं देवाणं पहरणत्ताए परिणमति ! गो० जणं देवा तणं वा कट्टं वे" त्यादि भगवती सूत्रे १८ - ७ । ___ श्री भगवती सूत्र के अट्ठारहवें शतक के सातवें उद्देश में कहा है कि 'हे भगवन् देव और असुर के युद्ध में उन देवों के शस्त्र रूप में क्या परिणाम होता है ? हे गौतम! वे देव तृण काष्ठादि शस्त्र रूप में परिणाम रूप होते हैं ।'
विकुर्वाणशक्तिरपि वर्त्ततेऽस्य गरीयसी । जम्बूद्वीपद्वयं पूर्ण, यदसौ स्वविकुर्वितैः ।।७३२॥ वैमानिकैर्देवदेवीवृन्दैः सांकीर्ण्यतोऽभितः । ईष्टे पूरयितुं तिरंगसंख्यान् द्वीपवारिधीन् ।।७३३॥
वैमानिक देवों की रचना शक्ति महान होती है. वे देव अपनी रचना के रूप से दो जम्बू द्वीप को भर सकते हैं । (यह तो एक देव की शक्ति कही है) जबकि