________________
(890)
निगृहीतुं ततो मार्गे, नाशक्यतासुर प्रभुः । बज्रेणाधोनिपतता, स्वतस्त्रिगुणशीघ्रग: ।। ७२३॥
नाग्राहि शक्रेणाप्येष, स्वतो द्विगुणवेगवान् ।
वज्रं स्वतोमंदगति, घृतं पृष्ठानुधाविना ॥ ७२४॥
एक समय में इन्द्र महाराज जितने क्षेत्र में ऊँचे जाय उतने क्षेत्र के वज्र दो समय में पहुँचे और चमर तीन समय में पहुँचे । एक समय में असुरेन्द्र जितने क्षेत्र में नीचे जाता है उतने क्षेत्र में इन्द्र दो समय में पहुँचे और वज्र तीन समय में पहुँचे, इससे ही नीचे पड़ते वज्र से अपने से तीन गुणा शीघ्र गति वाले असुरेन्द्र मार्ग में निग्रह (शिक्षा) नही कर सकता । इससे ही इन्द्र महाराजा द्वारा भी अपने से दो गुणा गति वाला असुरेन्द्र पकड़ नहीं सकता और अपने से मंद गति वालें वज्र के पीछे दौड़ कर पकड़ लिया था । ( ७२१-७२४)
सुरा सुखेन गृहणीरन्नधः क्षिप्तं हि पुद्गलम् ।
यदसौ सत्वरः पूर्व, पश्चान्मन्दगतिर्भवेत् ॥७२५॥
नीचे फैंके पुद्गल को देवता सुखपूर्वक ग्रहण कर सकता है क्योंकि नीचे फेंके पुद्गल प्रारम्भ में शीघ्र गतिवाला होता है और पीछे से मंद गतिवाला होता है । (७२५)
दूर्वं पश्चादपि सुरो, महर्द्धिकस्तु सत्वरः । नरादयस्तु तदनु नाधः पतितुमीशते ।।७२६॥
महर्द्धिक देव पहले और बाद में नीचे उतरने में एक समान गति वाले होते हैं और मनुष्य आदि पुद्गल के पीछे पड़कर पुद्गल को नहीं पकड़ सकता है ।
(७२६)
एवं च - अन्येषामपि देवानां यदा विमानवासिनाम् ।
युद्धं स्यादसुरैः सार्द्ध, भवप्रत्ययवैरतः ।।७२६॥
तथा वैमानिका देवाः काष्ठपर्णतृणादिकम् । शर्कराणप्येक मामृशन्ति करेण यत् ॥ ७२८॥
.