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________________ (४०८) . यदा यदा स चेन्द्रस्य, कृचिज्जिगमिषा भवेत् । तदा तदा हस्तिरुपं कृत्वेशमुपतिष्ठते ।।७१०॥ जब-जब इन्द्र महाराज को कभी भी जाने की इच्छा होती है तब-तब हस्ति रूप करके इन्द्र महाराज के पास में वह तैयार रहता है । (७१०) दधात्यसौ करे बजममोघशक्तिशालि यत् । निरीक्ष्यैव विपक्षाणां क्षणात्क्षुभ्यति मानसम् ॥११॥ .... ये इन्द्र महाराज हाथ में अमोघ शक्ति वाला वज्र धारण करते हैं कि उसे देखकर ही शत्रु का मन क्षण भर में क्षोभ प्राप्त करता है । (७११) ... प्रयुक्तं द्विषतो हन्तुमिन्द्रेण कुपितेन यत् । चालास्फुलिङ्गानभितो विकिरभीषणाकृति ॥७१२॥ कुर्वद् दृष्टि प्रतीघातमुत्फुल्लकिंशुकोपमम् । निहन्त्येवानुमम्यैनं मतं दूरेऽपि साध्ठसात् ।।१३॥ क्रोध में आये इन्द्र महाराज शत्रु को मारने के लिये जब वज्र का उपयोग करते हैं उस समय भीषण आकृति वाला यह वज्र चारों तरफ अग्नि के कणों को छोड़ते हुए आँख को बन्द कराते हुए आँख को प्रतिघात पहुँचाता है और खिले केशु के फूल समान लाल श्याम बन गये, इस वज्र के भय से दूर भागते शत्रु को भी जल्दी से पीछे जाकर मारता है । (७१२-७१३) यथाऽनेनैव शके ण तन्मुक्तं चमरोपरि । ततो नंष्ट्वा गतस्यास्य श्रीमद्वीरपदान्तरे ॥१४॥ पृष्ठे पतद्गृहीतं च जिनावज्ञाभियाऽमुना । चतुर्भिरगुङ्लैर्वीरपादाद्वयवहितं रयात् ।।७१५॥ जैसे इसी ही इन्द्र महाराज ने चमरेन्द्र ऊपर वह वज्र छोड़ा था इस से वह चमरेन्द्र भाग कर वीर परमात्मा के चरणों के बीच में आ गया इससे श्री जिनेश्वर भगवान की अवज्ञा न हो इस तरह भय से उस चमरेन्द्र के पीछे पड़े वज्र को इन्द्र महाराज ने भगवान से चार अंगुल अन्तर रह गया था तब पकड़ लिया था । (७१४-७१५)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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