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________________ (४०७) महोत्सव में भक्ति के आशय से और भगवान के अतिशय प्रकट करने के लिये आनंद से इस तरह से करते हैं । (७०४-७०५) तथोक्तम्: - जाहेणं भंते ! सक्के देविदे देवराए वुट्टिकायं काउकामे भवइ से कहमिदाणिं पकरेइ । इत्यादि भगवती सूत्रे 14-2 । श्री भगवती सूत्र के चौदहवें शतक के दूसरे उद्देश में कहा है कि हे भगवन्त! देवों के राजा इन्द्र - शक्र महाराज वृष्टि करने की इच्छा करें उस समय किस तरह करते हैं ? इत्यादि उसमें आया है । छित्वा भित्वा कुट्टयित्वा चूर्णयित्वाऽथवा स्वयम् । कमण्डल्वां शिरः पुंसः कस्याप्येष यदि क्षिपेत् ।।७०६॥ तथापि किंचिदप्यस्य बाधा न स्यात्तथा विधा । भगवत्यां शकशक्तिरुक्ता चतुर्दशे शते ॥७०७॥ इन्द्र महाराज की शक्तिं ऐसी है कि -इन्द्र महाराज स्वयं किसी पुरुष के मस्तक का छेदन करके, भेदन करके, चकनाचूर्ण करके कमंडल के अंदर डाल दें फिर भी इन्द्र महाराज को उस प्रकार की प्रतिकार रूप बाधा नही होती है । ऐसी इन्द्र महाराज की शक्ति होती है । श्री भगवती सूत्र के चौदहवें शतक में कहा है । (७०६-७०७) • • सदा सन्निहितस्तस्यैरावणो वाहनं सुरः । व्यक्तो. नानाशक्तियुक्तो भक्त्युद्युक्तः सुरेशितुः ।।७०८॥ दशार्णनपबोधाय, यियासोरिव वज़िणः । आज्ञां प्राप्यानेकरूपसमर्द्धि कर्तुमीश्वरः ।।७०६॥ इन्द्र महाराज के सदा ऐरावत वाहन (ऐरावत रुप में बनने वाला देव) प्रगट रूप नजदीक में ही रहता है और वह इन्द्र महाराज ऊपर विशेष भक्ति वाला और विशेष शक्ति से युक्त होता है । जो दशार्ण भद्र राजा को बोध कराने के लिए जाने की इच्छा वाले इन्द्र महाराज की आज्ञा को प्राप्त करके अनेक रुप की समृद्धि करने में समर्थ बना था । (७०८-७०६)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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