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ततःपालकदेवेन रचिते पालकामिधे । सम नो महायानविमाने सपरिच्छदः ॥६६६॥ औत्तराहेण नियाणमार्गेणावतरत्यधः । . एत्यनन्दीश्वरद्वीप, आग्नेयकोणसंस्थिते ।।६६७॥ शैलेरतिकराभिख्ये विमानं संक्षिपेत्ततः । कृतकार्यः स्वर्गमेति विहिताष्टाहिमहोत्सवः ॥६६८॥
उसके बादं पालक देवता से बनाया गया पालक नामक बड़े विमान में परिवार सहित बैठे इन्द्र महाराज उत्तर दिशा के निर्याण नीचे उतरने के मार्ग से नीचे उतरते हैं और नंदीश्वर द्वीप में आकर अग्नि कोने में रहे रतिकर पर्वत ऊपर विमान को संक्षेप करते हैं और फिर कार्य होने के बाद अष्टाहिन्का महोत्सव करके देवलोक वापिस जाते हैं । (६६६-६६८)
तथोक्तं - "तत्र दक्षिणो निर्याण मार्ग उक्तः इहतु उत्तरो वाच्यः तथा तत्र नंदीश्वर द्वीपे उत्तरपूर्वो रतिकर पर्वत ईशानेन्द्रस्यावतारायोक्तः इहतु दक्षिणपूर्व सौ वाच्यः" इति भगवती सूत्रवृत्तौ शतक १६ द्वितीयोद्देशके, तत्रेति ईशानेन्द्राधिकारे, इहे ति सौ धर्मेन्द्राधिकारे ॥ ___ श्री भगवती सूत्र की टीका के सोलहवें शतक के दूसरे उद्देश में कहा है कि वहां दक्षिण निर्याण मार्ग कहा है वह यहां उत्तर कहना, वहां नन्दीश्वर द्वीप में उत्तर पूर्व को ईशान कोने का रति कर पर्वत ईशानेन्द्र को उतरने के लिए कहा है वहां तत्र सम्बंध से. ईशानेन्द्र का अधिकार है और यहां इन्द्र से सौधमेन्द्र का अधिकार है -
स्वर्गेषु विषमेष्वेषा स्थितिः स्यादशमेऽपि च ।। घण्टाफ्तीशनामादिः समेष्वीशाननाकवत् ।।६६६॥
एक संख्या वाले - विषम स्वर्गों में और दसवें स्वर्ग में सुघोषा घंटा और पैदल सेनापति के नाम आदि की वास्तव में इस तरह कहा है और यौगिक संख्या वाले स्वर्गों में ईशानेन्द्रों की स्थिति अनुसार समझना । (६६६)
तथादेवा महामेघाः सन्त्यस्यवशवर्तिनः । येषां स्वामितया शक्रोमघवानिति गीयते ।।७००॥