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ईशानाद्यच्युतान्तानामेवं सर्वबिडौजसाम् ।। पत्ति सैन्यपतेः कच्छाः सप्त सप्त भवन्ति हि ॥६६०॥
ईशान देवलोक से अच्युत देवलोक तक के सर्व इन्द्रों की पदाति सेना की सात-सात 'कच्छा' होती है । (६६०)
देवास्तत्राद्यकच्छायां, स्वेन्द्रसामानिकै समाः । द्वितीयाद्याः षडन्याश्च द्विना द्विना यथोत्तरम् ।।६६१॥ .
इन सात कच्छाओं में से पहली कच्छा में देव अपने देवलोक के इन्द्र के सामानिक देवों की संख्या अनुसार होती है । दूसरी से सात तक की छः कच्छा में क्रमशः देवों की संख्या दोगुनी-दोगुनी समझना । (६६१)
यथासी धर्मेन्द्र हरिनैगमेषिचभूपतेः ।। स्यादाद्यकच्छा चतुरशीति देव सहस्रिका ।।६६२॥ .
जैसे कि सौ धर्मेन्द्र के हरिनैगमेषी सेनापति है उनकी प्रथम कच्छा के. चौरासी हजार देवता होते हैं (६६२) . . .
तथायानविमानाधिकारी पालक निर्जरः ।
सदाशक नियोमेच्छुरास्ते विरचिताञ्जलिः ।।६६३॥
तथा अब वाहन रूप विमान के अधिकारी पालक नामक देव है और वे संघ इन्द्र महाराज की आज्ञा का इच्छुक बनकर हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं । (६६३)
यदेन्द्रो जिनजन्माधुत्सवेषु गन्तुिमिच्छति । तदावादयते घण्टी सुघोषानैगमेषिणा ॥६६४॥
जब इन्द्र महाराज की श्री जिनेश्वर भगवंत के जन्म कल्याण आदि उत्सव । में जाने की इच्छा होती है उस समय इन्द्र महाराजा नैगमेषी देव द्वारा 'सुधोषा' घंटा बजवाते हैं। (६६४)
वादीतायाममष्यां च घण्टाः सर्वविमानगाः । शब्दायन्ते समं यन्त्रप्रयोगप्रेरिताइव ।।६६५।।
यह घण्टा बजाने के बाद सर्व विमान में रहे घंटे एक साथ में यन्त्र प्रयोग से प्रेरित हो इस तरह बजने लगते हैं । (६६५)