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________________ (४००) शतानि मन्त्रिणः पञ्च, संत्यन्येऽपीन्द्रसंमताः । येषांमक्षिसहस्त्रेण सहस्त्राक्षः स गीयते ॥६६७॥ इन्द्र महाराज के अन्य भी मान्यवर पाँच सौ मन्त्री होते हैं उनकी हजार आँख भी अपेक्षा से इन्द्र महाराज का नाम सहसाक्ष भी कहा है। (६६७) तथोक्तं कल्पसूत्रेक्तौ - "सहस्सक्खे ति मन्त्रि पंचशत्मा लोत्तनानि इन्द्र सम्बन्धीन्येवेति सहस्त्राक्षः" कल्प की टीका में कहा है कि पाँच सौ मन्त्री की आँखें इन्द्र महाराज की कहलाती है, इसलिए इन्द्र महाराजा सहस्राक्ष कहताता है । तथा सहस्राणि चतुरशीतिरात्मरक्षकाः । अमी चात्मानमिन्द्रस्य रक्षन्तीत्यात्मरक्षकाः ॥६६८॥ इन्द्र महाराज के चौरासी हजार आत्मरक्षक देव होते हैं और ये देवता इन्द्र महाराज के आत्मा का रक्षण करने वाले होने से आत्मरक्षक देव कहलाते हैं । (६६८) ऐतेत्वपायाभावेऽपि, प्रीत्युत्पत्यैसुरेशितुः । तथास्थितेश्च निचितकवचाः परितः स्थिताः ।।६६६॥ ... ये देवता कोई उपद्रव न हो तो भी इन्द्र महाराज का प्रेम प्राप्त करने के लिये कवच धारण करके तैयार होकर इन्द्र महाराज के चारों तरफ रहते हैं । (६६६) धनुरादिप्रहरणग्रहणव्यग्र पाणयः तूणीरखड्गफलककुन्तादिभिरलङ्कृताः ॥६७०॥ . एकाग्रचेतसः स्वामिवदनन्यस्तदृष्ट यः । श्रेणीभूताः शक्र सेवां, कुर्वते किङ्कराइव ॥६७१ ॥ जो हाथ में धनुष्यादि शस्त्रों को ग्रहण करने में तत्पर है और तलवारफलक भाले आदि से अलंकृत है, ऐसे वे एकाग्र चित्त से स्वामी के मुख कमल ऊपर आँख रखकर श्रेणीबद्ध रूप में किंकर के समान शक्र महाराजा की सेवा करते हैं । (६७०-६७१)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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