________________
(३६६)
मगा पुत्रीय अध्ययन में कहा है कि 'नंदन नामक प्रसाद में नित्य आनंदित मनवाले बनकर दो गुंदक देव के समान स्त्रियों देवियों के साथ में हमेशा क्रीड़ा करते हैं'। (६६१) .
त्रायस्त्रिंशादेवा भोगपरायणादोगुंदका इति भण्यन्ते “इत्युतराध्ययनाव चूर्णी"।
वासस्विश देव भोग करने में परायण होने से दो गुंदक कहलाते हैं । इस तरह श्री उत्तराध्ययन सूत्र की अपचूर्णिका में कहा है ।
साम्प्रतीनास्त्वमी जम्बुद्वीपेऽस्मिन्नेव भारते । पालाकसन्निवेशस्थात्रयस्त्रिंशन्महर्द्धिकाः ॥६६२॥ अभून् गृहपतयः, सहायास्ते परस्परम । उग्राचार क्रियासाराः, संसार भयभीरवः ॥६६३।। प्रपाल्याब्दानि भूयासि, श्रावकाचारमुत्तमम् । आलोचित प्रतिक्रान्तातिचाराश्चतुराशयाः ॥६६४॥ मासमेकमनशनं, कृत्वा मृत्वा समाधिना । त्रायस्त्रिंशाः समभवन्मान्या वृन्दारकेशितुः ॥६६५॥
साम्प्रतीन त्रायस्त्रिंश देव का वर्णन - अभी के त्रायस्त्रिश देव इस जम्बू द्वीप में पालक सन्निवेश के रहने वाले महान ऋद्धिवाले ३३ गृहपति थे । वे परस्पर सहाय करने वाले होते हैं, बहुत वर्षों तक उत्तम श्रावकाचार का पालन करके आलोचना और प्रतिक्रमण करके चतुराशय वाले वे एक महीने का अनशन करके समाधि पूर्वक मृत्यु प्राप्त करके इन्द्र महाराजा के मान्यवर्य त्रायस्त्रिश देवता होते हैं । (६६२-६६५)
नश्चैवमेतेभ्य एव त्रायस्शिा इति प्रथा । नामधेयं नित्यमेतदच्युच्छित्तिनयाश्रयात् ॥६६६॥
ये ततीस गृहपति यहाँ देवलोक में इस स्थान में एक साथ में उत्पन्न होते हैं इससे इन त्राय स्त्रिश का नाम है, ऐसा नही है परन्तु व्युक्षिति नय-नित्यता की अपेक्षा से यह नाम हमेशा का है । (६६६)